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Showing posts from January, 2022

दास की परिभाषा‘‘

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‘‘दास की परिभाषा‘‘ एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा कि:-  दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।। सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी न

दहिने घाट चन्द्र का बासा। बाँवें सूर (सूर्य) करे प्रकाशा।।

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काया पांजी कबीर सागर में 28वां अध्याय ‘‘काया पांजी‘‘ है। पृष्ठ 173 पर है। परमेश्वर कबीर जी ने शरीर में बने कमलों का ज्ञान तथा जीव जब सतलोक चलता है तो कौन-कौन से मार्ग से जाता है? यह बताया है। परंतु इस अध्याय में यथार्थ वाणी को अपनी बुद्धि से काल वाले कबीर पंथियों ने निकाल दिया और अपनी अल्प बुद्धि से अड़ंगा करके गलत वाणी लिख दी। प्रमाण के लिए पृष्ठ 175 पर प्रथम पंक्ति में लिखा है:- दहिने घाट चन्द्र का बासा। बाँवें सूर (सूर्य) करे प्रकाशा।। भावार्थ:- दायें नाक वाला छिद्र चन्द्र यानि शीतल है और बायां छिद्र सूर्य यानि गर्म है। जबकि वास्तविकता यह है कि दायां स्वर तो गर्म यानि सूरज द्वार कहा जाता है। इसको पिंगल नाड़ी भी कहते हैं। बायां स्वर चन्द्र द्वार यानि शीतल द्वार कहते हैं, इसको इंगला नाड़ी कहते हैं और मध्य वाली को सुषमणा नाड़ी कहते हैं। इस प्रकार ज्ञान का अज्ञान करके लिखा है। मेरे पास पुराना यथार्थ कबीर ग्रन्थ है। उससे तथा संत गरीबदास जी के ग्रन्थ से सारांश तथा वाणी लिखकर सार ज्ञान प्रस्तुत कर रहा हूँ। यथार्थ ज्ञान कृपा पढ़ें यह शब्द ‘‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है‘‘, इसी पुस

काल लोक के स्वर्ग की तुलना में सत्यलोक का स्वर्ग असँख्य गुणा अच्छा है।

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वाणी:- है निरसिंघ अबंध अबिगत, कोटि बैुकण्ठ नखरूप है। अपरंपार दीदार दर्शन, ऐसा अजब अनूप है।। 12  सरलार्थ:- परमात्मा सीमा रहित, बंधन रहित है जिसकी गति (स्थिति) को कोई नहीं जानता(परमात्मा अविगत है)। उसके नाखून जितने स्थान पर करोड़ों स्वर्ग स्थापित हैं। भावार्थ है कि परमात्मा की अध्यात्मिक शक्ति जिसे निराकार शक्ति कहते हैं, इतनी विशाल तथा शक्तियुक्त है कि उसके अंश मात्र पर करोड़ों स्वर्ग स्थापित हैं। जैसे सत्य लोक (सतलोक) में जितने भी ब्रह्माण्ड हैं, वे सर्व स्वर्ग हैं अर्थात् सुखदायी स्थान हैं। स्वर्ग नाम सुखमय स्थान का है। काल लोक के स्वर्ग की तुलना में सत्यलोक का स्वर्ग असँख्य गुणा अच्छा है। वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् सत्यपुरूष अपरमपार है। उसकी लीला का कोई वार-पार अर्थात् सीमा नहीं है। उसका दीदार करने से (देखने से) पता चलता है कि वह ऐसा अजब (अनोखा) अर्थात् अनूप है। जिसकी तुलना करने को दूसरा नहीं है। नोट:- संत गरीबदास जी का दृष्टिकोण रहा है कि वाणी में सभी भाषाओं का समावेश किया जाए ताकि पृथ्वी के सब मानव तत्त्वज्ञान से परिचित हो सकें। इस वाणी में दीदार शब्द के साथ दर्शन शब्द भ

शरीर में बने कमलों का ज्ञान

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शरीर में बने कमलों का ज्ञान  वाणी:- सहंस कमल दल भी आप साहिब, ज्यूं फूलन मध्य गन्ध है। पूरण रह्या जगदीश जोगी, सत् समरथ निर्बन्ध है।। 8 सरलार्थ:- सहंस्र कमल दल का स्थान सिर के ऊपरी भाग में कुछ पीछे की ओर है जहाँ पर कुछ साधक बालों की चोटी रखते हैं। वैसे भी बाल छोटे करवाने पर वहाँ एक भिन्न निशान-सा नजर आता है। इस कमल की हजार पंखुड़ियाँ हैं। इस कारण से इसे सहंस्र कमल कहा जाता है। इसमें काल निरंजन के साथ-साथ परमेश्वर की निराकार शक्ति भी विशेष तौर से विद्यमान है। जैसे भूमध्य रेखा पर सूर्य की उष्णता अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक रहती है। वह जगदीश ही सच्चा समर्थ है, वह निर्बन्ध है। काल तो 21 ब्रह्माण्डों में बँधा है। सत्य पुरूष सर्व का मालिक है। (8) वाणी:- मीनी खोज हनोज हरदम, उलट पन्थ की बाट है। इला पिंगुला सुषमन खोजो, चल हंसा औघट घाट है।। 9 सरलार्थ:- जैसे मछली ऊपर से गिर रहे जल की धारा में उल्टी चढ़ जाती है। इसी प्रकार भक्त को ऊपर की ओर सतलोक में चलना है। उसके लिए इला (इड़ा अर्थात् बाईं नाक से श्वांस) तथा पिंगुला (दांया स्वर नाक से) तथा दोनों के मध्य सुष्मणा नाड़ी है। उसको खोजो। फिर हे

अध्याय संतोष बोध

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अध्याय संतोष बोध  कबीर सागर में संतोष बोध 27वां अध्याय पृष्ठ 151 पर है। परमेश्वर कबीर जी ने कबीर बानी अध्याय के पृष्ठ 137 पर कहा है कि  ‘‘तेतीस अरब ज्ञान हम भाखा। मूल ज्ञान हम गोय ही राखा।।‘‘  संतोष बोध उस तेतीस अरब वाणियों में से है। संतोष का अर्थ है सब्र। परमात्मा जैसे रखे और जो दे, उसमें संतुष्ट रहना संतोष है। भक्त को भक्ति मार्ग में 16 साधन करते होते हैं जो भक्त का आभूषण कहा है।  1. ज्ञान  2. विवेक  3. सत्य  4. संतोष  5. प्रेम भाव  6. धीरज  7. निरधोषा (धोखा रहित)  8. दया  9. क्षमा  10. शील  11. निष्कर्मा  12. त्याग  13. बैराग  14. शांति निज धर्मा  15. भक्ति कर निज जीव उबारै  16. मित्र सम सबको चित धारै।  उनमें से एक संतोष है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि:- गज (हाथी) धन, राज धन और धन न की खान। जब आया संतोष धन, सब धन धूर समान।। संतोष धन का व्याख्यान पर्याप्त है। अध्याय का नाम गलत रखा है तो भी इसके ज्ञान को 33 अरब वाला जानकर छोड़ देना चाहिए। संतोष बोध पृष्ठ 158 पर नौ तत्त्व बताए हैं।  1) पृथ्वी  2) जल  3) वायु  4) अग्नि  5) आकाश  6) तेज  7) सुरति  8) निरति  9) शब्द लिखे हैं

कलयुग का अंतिम चरण’’

‘‘कलयुग का अंतिम चरण’’  कबीर परमेश्वर जी ने बताया था कि जिस समय 3400 (चैंतीस सौ) ग्रहण सूर्य के लग चुके होंगे। तब कलयुग का अंत हो जाएगा। कलयुग पयाना यानि प्रस्थान कर जाएगा। कबीर बानी पृष्ठ 137 पर पंक्ति नं. 14 गलत लिखी है। यथार्थ चैपाई इस प्रकार है:- तेरहवां पंथ चले रजधानी। नौतम सुरति प्रगट ज्ञानी।। पंक्ति नं. 13 भी गलत लिखी है, ठीक इस प्रकार है:- संहस्र वर्ष पंथ चले निर्धारा। आगम (भविष्य) सत्य कबीर पोकारा।। वाणी नं. 12 भी गलत है, ठीक नीचे पढ़ें:- कलयुग बीते पाँच हजार पाँच सौ पाँचा। तब यह बचन होयगा साचा।। पंक्ति नं. 15 भी गलत लिखी है, ठीक निम्न है:- कबीर भक्ति करें सब कोई। सकल सृष्टि प्रवानिक (दीक्षित) होई।। भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने तीनों चरण कलयुग के बताए हैं। फिर धर्मदास जी से प्रतिज्ञा (सोगंध) दिलाई कि मूल ज्ञान यानि तत्त्वज्ञान तथा मूल शब्द (सार शब्द) किसी को उस समय तक नहीं बताना है, जब तक द्वादश (बारह) पंथ मिट न जाएं। विचार करें बारह पंथ मिटाकर एक पंथ चलाना था, उस समय जिस समय कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष बीत जाएगा। कलयुग का वह समय सन् 1997 में है तो इससे पहले यह नाम बताना

सुमरन करना चाहिए‘‘

‘‘सुमरन करना चाहिए‘‘ चौपाई तुम कहँ शब्द दीन्हा टकसारा। सो हंसन सों कहो पुकारा।। शब्द सार का सुम्रन करिहै। सहजै सत्यलोक निस्तरिहै।। सुम्रन का बल ऐसा होई। कर्म काट सब पलमहँ खोई।। जाके कर्म काट सब डारा। दिव्य ज्ञान सहजै उजियारा।। जा कहँ दिव्यज्ञान परकाशा। आपहि में सब लोक निवासा।। लोक अलोक शब्द हैं भाई। जिन जाना तिन संशय नाहीं।। तत्त्व सार सुमरण है भाई। जातें यमकी तपन बुझाई।। सुमरण सों सब कर्म बिनाशा। सुमरण सों दिव्यज्ञान प्रकाशा।। सुमरण सों जाय है सतलोका। सुमरण सों मिटे है सब धोका।। धर्मन सुमरण देहु लखाई। जासों हंस सबै मुक्तिाई।। उपरोक्त वाणियों से स्पष्ट है कि स्मरण करना चाहिए। अमर मूल पृष्ठ 260 से 264 तक सामान्य ज्ञान है जो पहले वर्णन हो चुका है। दीक्षा तीन चरणों में पूरी की जाती है अध्याय ‘‘अमर मूल’’ के पृष्ठ 265 पर तीन बार में दीक्षा क्रम पूरा करने का प्रमाण है। कबीर जी ने दीक्षा क्रम तीन चरणों में पूरा करने को कहा है:- साहिब कबीर-वचन तब कबीर अस कहिबे लीन्हा। ज्ञान भेद सकल कहि दीन्हा।। धर्मदास मैं कहौं विचारी। जिहितैं निबहै सब संसारी।। प्रथमहि शिष्य होय जो आई। ता कहँ पान देहु तुम भाई।

कहते हैं कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है।

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प्रश्न:- कहते हैं कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है। उत्तर:- जीव 25% कर्म तो स्वतंत्र रूप से करता है। अपने जीवन काल में 75% कर्म तो प्रारब्ध वाले करने में परतंत्र है, विवश है। केवल 25% कर्म करने में स्वतंत्र है। पंरतु पूर्ण संत मिलने के पश्चात् परिस्थिति बदल जाती है। प्रारब्ध में सुसंगत तथा कुसंगत भी लिखी होती है। उदाहरण:- जैसे राजा दशरथ जी ने यज्ञ किया था। सुयोग्य पुत्र प्राप्ति के लिए यह क्रियावान स्वतंत्र कर्म था। अन्य संतान तीन पुत्र (भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न) तथा पुत्री शारदा थे, प्रारब्ध से मिले थे। श्री रामचन्द्र जी का सीता से विवाह प्रारब्ध था, 14 वर्ष का बनवास सीता, राम, लक्ष्मण का प्रारब्ध था। जंगल में बनवास के समय पशु शिकार करके मारे, वह स्वतंत्र कर्म था। स्वरूपणखां का नाक काटना लक्ष्मण का स्वतंत्र कर्म था। सीता का अपहरण प्रारब्ध कर्म सीता तथा रावण दोनों का था। यह कारण अन्य भी हो सकता था जो शुर्पणखा बनी थी। तेतीस करोड़ देवताओं का कैद में रहना प्रारब्ध कर्म था। सुग्रीव के भाई बाली को राम ने मारा, यह स्वतंत्र कर्म था। फिर वह संचित कर्मों में जमा होकर प्रारब्ध बना और

‘‘श्री नानक देव जी का गुरु जी कौन था ?’’

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‘‘श्री नानक देव जी का गुरु जी कौन था ?’’ श्री नानक जी के गुरु जी कौन हैं ? इस विषय पर अभी तक भ्रान्तियाँ थी। सिख समाज का मानना है कि श्री नानक देव जी का कोई गुरु नहीं था। सिख समाज का यह भी मानना है कि भाई बाले ने जो कुछ भी जन्म साखी बाबा नानक की में लिखा है। वह बाबा नानक जी के वचन हैं या अन्य किसी सिद्ध या संत से की गई गोष्ठी यथार्थ को रूप में लिखा है। आओ ‘‘भाई बाले वाली जन्म साखी’’ से जाने की श्री नानक देव जी का गुरु जी कौन था ? भाई बाले वाली जन्म साखी (हिन्दी भाषा वाली) के पृष्ठ 280, 281 ‘‘साखी और चली’’ में श्री नानक जी ने कहा है कि ‘‘मर्दाना ! मुझे उस ईश्वर ने इतना बड़ा गुरु मिलाया है जो करतार का ही रूप है। मर्दाने ने कहा हे महाराज ! जिस गुरु का आपने जिक्र किया है, उसका नाम जानना चाहता हूँ। गुरु नानक जी ने कहा उसका नाम बाबा जिंदा कहते हैं। जल, पवन, अग्नि तथा पथ्वी उसी की आज्ञा में चल रहे हैं। उसी को बाबा (दादा) कहना उचित है, अन्य को नहीं। मर्दाने ने पूछा कि हे महाराज हम आपके साथ ही रहते हैं आपको वह बाबा अर्थात् आपका गुरु कब तथा कहाँ मिला था। श्री नानक जी ने कहा कि ‘‘मर्दा

सतनाम का रहस्य’’

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 ‘‘सतनाम का रहस्य’’  (यह निम्नलिखित विवरण सन्त रामपाल दास जी महाराज के सत्संगों से लिया गया है)  ‘‘प्राण संगली’’ में राग केदार गौड महला-1 पष्ठ 201 (पंजाब यूनिवर्सिटि = पंजाबी भाषा वाली) पर श्री नानक साहेब जी ने कहा:- पिंड पड़े जीव चाल सी सिर काल कड़के आई। नानक सचे नाम बिना जमपुर बंधा जाई।। भावार्थ:- श्री नानक जी कह रहे हैं कि सच्चेनाम (सतनाम) बिन जीव को काल पकड़ लेता है। उसी को यमलोक में डाला जाता है।  ‘‘प्राण संगली’’ नामक ग्रन्थ श्री नानक साहेब जी के श्री मुख से उच्चारित पवित्र वाणी है। जो महला पहला की अमतवाणी है। इसमें सत्यनाम का स्पष्ट वर्णन है। इस सत्यनाम में दो अखर ओम्-सोहम् हैं। यह भेद कलयुग के 5505 वर्ष बीत जाने तक छुपा कर रखना था। जो कबीर परमेश्वर जी का आदेश था। इसीलिए ‘‘प्राण संगली’’ भाग-1 के प्रथम पष्ठ पर ‘‘आवश्यक सूचना’’ नामक हैडिंग है इसमें उल्लेख है कि श्री नानक साहेब जी ने सिंगलादीप के राजा शिवनाभ से कहा था - ‘‘इह ग्रंथ मेरी देह है, मेरा स्थूल रूप है, प्राणों मेरिओं का संग्रह कह्ये कवच है, जगत - समुंद्र का इह पुल है। इह प्राण-संगली मैं तैनूँ बषशी है, इह अजर वस्तु

कलयुग का प्रथम चरण कब था?

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कलयुग का प्रथम चरण कब था? प्रथम चरण कलयुग निरयाना। तब मगहर मांडौ मैदाना।। परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि मैं मगहर में एक लीला करूंगा। ब्राह्मणों के साथ आध्यात्मिक मैदान माँडूँगा यानि ज्ञान गोष्टी करूँगा। (मैदान माँडने का भावार्थ है कि किसी के साथ कुश्ती करना या लड़ाई करना या ज्ञान चर्चा यानि शास्त्रार्थ करने के लिए चैलेंज करना) पंडितजन कहा करते थे कि जो काशी शहर में मरता है वह स्वर्ग में जाता है तथा जो मगहर शहर में मरता है, वह गधा बनता है। इसलिए मगहर में कोई मत मरना। परमेश्वर कबीर जी कहते थे कि सत्य साधना करने वाला मगहर मरे तो भी स्वर्ग तथा स्वर्ग से भी उत्तम लोक में जाता है। {मगहर नगर उत्तर प्रदेश में जिला-संत कबीर नगर में है। गोरखपुर से 25 कि.मी. अयोध्या की ओर है।} कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि मैं मगहर में मरूँगा और उत्तम लोक में जाऊँगा। विक्रमी संवत् 1575 (सन् 1518) माघ के महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी को परमेश्वर कबीर जी ने सतलोक जाने की सूचना दे दी। काशी से मगहर सीधे रास्ते से 150 कि.मी. है। उस समय कबीर परमेश्वर जी की लीलामय आयु 120 वर्ष थी। पैदल चलकर तीन दिन में काशी शह

किसने देखा परमेश्वर’’

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‘‘किसने देखा परमेश्वर’’ जिन आँखों वालों (पूर्ण सन्तों) ने सूर्य (पूर्ण परमात्मा) को देखा उन में से कुछ के नाम हैं:- (क) आदरणीय धर्मदास साहेब जी (ख) आदरणीय दादू साहेब जी  (ग)आदरणीय मलूक दास साहेब जी (घ) आदरणीय गरीबदास साहेब जी (ड़) आदरणीय नानक साहेब ज#धरती_पर_अवतार_part29  (च) आदरणीय घीसा दास साहेब जी आदि। (क) आदरणीय धर्मदास साहेब जी, बांधवगढ़ मध्य प्रदेश वाले, जिनको पूर्ण परमात्मा जिंदा महात्मा के रूप में मथुरा में मिले, सतलोक दिखाया। वहाँ सतलोक में दो रूप दिखा कर जिंदा वाले रूप में पूर्ण परमात्मा वाले सिंहासन पर विराजमान हो गए तथा आदरणीय धर्मदास साहेब जी को कहा कि मैं ही काशी (बनारस) में नीरू-नीमा के घर आया हुआ हूँ। वहाँ धाणक (जुलाहे) का कार्य करता हूँ आदरणीय श्री रामानन्द जी मेरे गुरु जी हैं। यह कह कर श्री धर्मदास जी की आत्मा को वापिस शरीर में भेज दिया। श्री धर्मदास जी का शरीर दो दिन बेहोश रहा, तीसरे दिन होश आया तो काशी में खोज करने पर पाया कि यही काशी मे आया धाणक ही पूर्ण परमात्मा (सतपुरुष) है। आदरणीय धर्मदास साहेब जी ने पवित्रा कबीर सागर, कबीर साखी, कबीर बीजक नामक सद्ग्रन

कहा पढो भागवत गीता, मनजीता जिन त्रिभुवन जीता।मनजीते बिन झूठा ज्ञाना , चार वेद और अठारा पुराना।।

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हम पढ़ रहे है पुस्तक "गहरी नजर गीता में" ◆ संत गरीबदास जी को परमेश्वर कबीर जी सतलोक लेकर गए थे।  उनको सतलोक दिखाकर तत्वज्ञान बताकर पृथ्वी पर छोड़ा था। इसी का प्रमाण महाराज गरीबदास साहेब जी (छुड़ानी, हरियाणा) ने अपनी वाणी में दिया है।  सतग्रन्थ साहिब पृष्ठ नं. 425 पर । राम नाम जप कर थीर होई। ऊँ-सोहं मन्त्रा दोई।। कहा पढो भागवत गीता, मनजीता जिन त्रिभुवन जीता। मनजीते बिन झूठा ज्ञाना , चार वेद और अठारा पुराना।। भावार्थ:- राम (ब्रह्म-अल्लाह-रब) का नाम जप कर निश्चल हो जाओ। भ्रमों भटको मत। वह राम का नाम ऊँ-सोहं है इसी से मन जीता जा सकता है। यदि यह सत्यनाम (ऊँ-सोहं) पूर्ण गुरु से प्राप्त नहीं हुआ चाहे आपको इस पुस्तक के पढ़ने से ज्ञान भी हो जाए कि सत्यनाम यह ‘ऊँ-सोहं‘ है तथा नाम जाप भी करने लग जाएँ तो भी कोई लाभ नहीं है। या नकली गुरु बन कर यह नाम देने लग जाए। वह पाखंडी स्वयं नरक में जाएगा तथा अनुयाईयों को भी डुबोएगा। वतर्मान में सत्यनाम व सारनाम दान करने का केवल मुझ दास (संत रामपाल दास) को आदेश मिला है। एक समय में एक ही तत्वदशीर् संत आता है, जो पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब (कविदेर्व) का कृप्

कबीर, धर्मदास उन-मन बसो, करो सत्य शब्द की आश।सोहं सार सुमरन है, मुनिवर मरें पियास।।

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पृष्ठ 105 पर धर्मदास तथा उनकी पत्नी आमिनी देवी को दीक्षा देने का प्रकरण है:- तीनि अंश की लगन विचारी। नारी तथा पुरूष उबारी।। नारी-पुरूष होए एक संगा। सतगुरू वचन दीन्ह सोहंगा (सोहं)।। सोहं शब्द है अगम अपारा। ताका धर्मनि मैं कहूँ विचारा।। सोहं पेड़ का तना और डारा। शाखा अन्य तीन प्रकारा।। अमृत वस्तु बहु प्रकारा। सोहं शब्द है सुमरन सारा।। सोहं शब्द निश्चय हो पावै। सोहं डोर गह लोक सिधावै।। जा घट होई सोहं मत सारा। सोई आवहु लोक हमारा।। सुरति नाम सोहं में राखो। परचे ज्ञान तुम जग में भाषो।। एति सिद्धि (शक्ति) सोहं की भाई। धर्मदास तुम लेओ चितलाई।। धर्मदास लीन्हा परवाना। भए आधीन छुटा अभिमाना।। सोहं करनी ऊँच विचारा। सोहं शब्द है जीव उजियारा।। पृष्ठ 106 का सारांश:- कबीर, धर्मदास उन-मन बसो, करो सत्य शब्द की आश। सोहं सार सुमरन है, मुनिवर मरें पियास।। भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को तीन चरण में दीक्षा क्रम पूर्ण होने की बात कही तो धर्मदास को दीक्षा लेने की लगन लगी। स्त्री तथा पुरूष यानि पति-पत्नी (धर्मदास तथा आमिनी देवी) ने दीक्षा ली। सोहं शब्द की दीक्षा ली और बताया कि:- कबीर, अक्

सतलोक में सताईस (27) द्वीप हैं। सात सागर हैं। उन द्वीपों में बहु संख्या में मुक्त भक्त यानि

‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 92 पर है। इस अध्याय में पृष्ठ 101 तक सृष्टि रचना का अधूरा तथा मिलावटी ज्ञान है। सृष्टि रचना का यथार्थ ज्ञान आप इसी पुस्तक के पृष्ठ 603 से 670 तक पढ़ें। कबीर बानी पृष्ठ 102 तथा 103 का सारांश:- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रश्न किया कि हे परमेश्वर! मुझे आपने अंश तथा वंश दोनों का ज्ञान दिया है। अंश है नाद यानि वचन के पुत्र अर्थात् शिष्य परंपरा। वंश है बिन्द यानि शरीर के पुत्र। (जो धर्मदास जी के वंश हैं) धर्मदास जी ने पूछा है कि जो मेरे वंश वाले दीक्षा देंगे, वो किस लोक में जाएंगे और जो अंश वाले से दीक्षा लेगा, उसके अनुयाई किस लोक या द्वीप में जाएंगे? धर्मदास-उवाच धर्मदास विनती असलाई। तुम्हरे चरण मुक्ति गति पाई।। उत्पत्ति कारण हम पावा। वंश-अंश दोनों निरतावा।। लोक द्वीप ठौर बतायो। बैठक अस्नेह हंस हंस चिन्हायो।। कैसा स्वरूप समर्थ है, कैसे हैं सब हंस। केहि करनी ते पाईए, कैसे कटै काल की फंस।। ‘‘सतगुरू वचन‘‘  चौपाई कहें कबीर सुनो धर्मदासा। अल्प बुद्धि घट मांह निवासा।। सत्य लोक है अधर अनूपा। तामें है सत्ताविस (27) दीपा।। सत्त शब्द का टेका दीना। अगम पोहुमीरचीतिन लीन्हा।।

जब अधिक भक्त सारनाम लेने वाले हैं तो ऊँचा बोलकर सुनाया जाता है। वह भी कान में सुनाना ही कहा जाता है।

मुक्ति बोध पृष्ठ 71 पर: जिन-जिन नाम सुना है काना। नरक न परे होय मुक्ति निदाना।। आदिनाम जेहि श्रवण नाहीं। निश्चय सो जीव जम घर जाई।। अक्षर गुप्त सोई में भाषा। और शब्द स्वाल अभिलाषा।। भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि जिन-जिन के कान में सारनाम पड़ा है यानि जिनको सारनाम सुनाया गया है। जैसे कई भक्त आसपास बैठे हों तो सार शब्द कान में सुनाया जाता है। जब अधिक भक्त सारनाम लेने वाले हैं तो ऊँचा बोलकर सुनाया जाता है। वह भी कान में सुनाना ही कहा जाता है। जिन-जिन ने नाम सुन लिया यानि प्राप्त कर लिया, वे काल जाल में नहीं रहेंगे, वे नरक में नहीं गिरेंगे। उनकी अवश्य मुक्ति होगी। जिनके कान में सार शब्द नहीं सुनाया गया यानि जिनको सारनाम पूर्ण गुरू से प्राप्त नहीं हुआ। वे अवश्य यम लोक में जाएंगे। (जो गुरू कहते हैं कि सारनाम को बोलकर नहीं सुनाया जाता, आत्मा में प्रवेश किया जाता है, वे गलत कहते हैं।) जो गुप्त अक्षर यानि गुप्त सारनाम अक्षर में है, वह मैंने बोल सुनाया है। मुक्ति बोध पृष्ठ 72 का सारांश:- जब लग भक्ति अंग नहीं आवा। सार शब्द कैसे को पावा।। सत्यनाम श्रवण महं वोषै। ज्यों माता बालक कहं पोषै।। भाव