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Showing posts from January, 2021

दास की परिभाषा‘‘

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‘‘दास की परिभाषा‘‘ एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा कि:-  दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।। सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी न

माता (दुर्गा) द्वारा ब्रह्मा को शाप देना”

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“माता (दुर्गा) द्वारा ब्रह्मा को शाप देना” तब माता ने ब्रह्मा से पूछा क्या तुझे तेरे पिता के दर्शन हुए? ब्रह्मा ने कहा हाँ मुझे पिता के दर्शन हुए हैं। दुर्गा ने कहा साक्षी बता। तब ब्रह्मा ने कहा इन दोनों के समक्ष साक्षात्कार हुआ है। देवी ने उन दोनों लड़कियों से पूछा क्या तुम्हारे सामने ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ है तब दोनों ने कहा कि हाँ, हमने अपनी आँखों से देखा है। फिर भवानी (प्रकृति) को संशय हुआ कि मुझे तो ब्रह्म ने कहा था कि मैं किसी को दर्शन नहीं दूँगा, परन्तु ये कहते हैं कि दर्शन हुए हैं। तब अष्टंगी ने ध्यान लगाया और काल/ज्योति निरंजन से पूछा कि यह क्या कहानी है? ज्योति निंरजन जी ने कहा कि ये तीनां झूठ बोल रहे हैं। तब माता ने कहा तुम झूठ बोल रहे हो। आकाशवाणी हुई है कि इन्हें कोई दर्शन नहीं हुए। यह बात सुनकर ब्रह्मा ने कहा कि माता जी मैं सौगंध खाकर पिता की तलाश करने गया था। परन्तु पिता (ब्रह्म) के दर्शन हुए नहीं। आप के पास आने में शर्म लग रही थी। इसलिए हमने झूठ बोल दिया। तब माता (दुर्गा) ने कहा कि अब मैं तुम्हें शॉप देती हूँ। ब्रह्मा को शॉप :- तेरी पूजा जगत में नहीं होगी

भेष देखि रैदास जी, गये कबीरा पास। गरीबदास रैदास कहै, छूट्या काशीबास।।825।।

भेष देखि रैदास जी, गये कबीरा पास। गरीबदास रैदास कहै, छूट्या काशीबास।।825।। बिहंसे बदन कबीर तब, सुन रैदास बिचार।  गरीबदास जुलहा कहै, लाय धनी सें तार।।826।। लाय तार ल्यौ लीन होय, रूप बिहंगम मांहि।  गरीबदास जुलहा गया, अगमपुरी निज ठांहि।।827।। जहां बोडी संख असंख सुर, बनजारे और बैल।  गरीबदास अबिगतपुरी, हुई काशी कूं सैल।।828।। जरद सेत और हीरे नघ, बोड़ी भरी अनंत।  गरीबदास ऐसैं कह्या, ल्यौह कबीर भगवंत।।829।। औह खाकी खंजूस पुर, अन्नजल ना अधिकार।  गरीबदास ऐसैं कह्या, सुन तूं कबीर सिरजनहार।।830।। अनंत कोटि बालदि सजी, तास लई नौ लाख।  दासगरीब कबीर केशव कला, एक पलकपुर झांकि।।831।। जहां कलप ऐसी करी, चौपडि के बैजार।  गरीबदास तंबू तने, पचरंग झंडे सार।।832।। खुल्या भंडारा गैबका, बिन चिटठी बिन नाम।  गरीबदास मुक्ता तुलैं, धन्य केशौ बलि जांव।।833।। झीनैं झनवा तुलत हैं, बूरा घृत और दाल।  गरीबदास ना आटै अटक, लेवैं मुक्ता माल।।834।। कस्तूरी पान मिठाइयां, लड्डू जलेबी चंगेर।  गरीबदास नुकति निरखि, जैसे भण्डारी कुबेर।।835।। बिना पकाया पकि रह्या, उतरे अरस खमीर।  गरीबदास मेला सरू, जय जय होत कबीर।।836।। सकल संप्रदा

‘‘संत रविदास जी द्वारा सात सौ पंडितों को शरण में लेना‘‘

‘‘संत रविदास जी द्वारा सात सौ पंडितों को शरण में लेना‘‘ ◆ पारख के अंग की वाणी नं. 703-709 :- तुम पण्डित किस भांतिके, बोलत है रैदास।  गरीबदास हरि हेतसैं, कीन्हा यज्ञ उपास।।703।। यज्ञ दई रैदासकूं, षटदर्शन बैठाय। गरीबदास बिंजन बहुत, नाना भांति कराय।।704।। चमरा पंडित जीमहीं, एक पत्तल कै मांहि।  गरीबदास दीखै नहीं, कूदि कूदि पछतांहि।।705।। रैदास भये है सात सै, मूढ पंडित गलखोडि।  गरीबदास उस यज्ञ में, बौहरि रही नहीं लोडि।।706।। परे जनेऊ सात सै, काटी गल की फांस।  गरीबदास जहां सोने का, दिखलाया रैदास।।707।। सूत सवामण टूटिया, काशी नगर मंझार।  गरीबदास रैदासकै, कनक जनेऊ सार।।708।। पंडित शिष्य भये सात सै, उस काशी कै मांहि।  गरीबदास चमार कै, भेष लगे सब पाय।।709।। ◆सरलार्थ :- संत रविदास जी का जन्म चमार समुदाय में काशी नगर में हुआ। ये परमेश्वर कबीर जी के समकालीन हुए थे। परम भक्त रविदास जी अपना चर्मकार का कार्य किया करते थे। भक्ति भी करते थे। परमेश्वर कबीर जी ने काशी के प्रसिद्ध आचार्य स्वामी रामानन्द जी को यथार्थ भक्ति मार्ग समझाया था। अपना सतलोक स्थान दिखाकर वापिस छोड़ा था। उससे पहले स्वामी रामानन्द जी

आदरणीय गरीबदास साहेब जी की अमृतवाणी में सृष्टी रचना का प्रमाण

सृष्टि रचना :- Part - 21 आदरणीय गरीबदास साहेब जी की अमृतवाणी में सृष्टी रचना का प्रमाण आदि रमैणी (सद् ग्रन्थ पृष्ठ नं. 690 से 692 तक) आदि रमैंणी अदली सारा। जा दिन होते धुंधुंकारा।।1।। सतपुरुष कीन्हा प्रकाशा। हम होते तखत कबीर खवासा ।।2।। मन मोहिनी सिरजी माया। सतपुरुष एक ख्याल बनाया।।3।। धर्मराय सिरजे दरबानी। चैसठ जुगतप सेवा ठांनी।।4।। पुरुष पृथिवी जाकूं दीन्ही। राज करो देवा आधीनी।।5।। ब्रह्मण्ड इकीस राज तुम्ह दीन्हा। मन की इच्छा सब जुग लीन्हा।।6।। माया मूल रूप एक छाजा। मोहि लिये जिनहूँ धर्मराजा।।7।। धर्म का मन चंचल चित धार्या। मन माया का रूप बिचारा।।8।। चंचल चेरी चपल चिरागा। या के परसे सरबस जागा।।9।। धर्मराय कीया मन का भागी। विषय वासना संग से जागी।।10।। आदि पुरुष अदली अनरागी। धर्मराय दिया दिल सें त्यागी।।11।। पुरुष लोक सें दीया ढहाही। अगम दीप चलि आये भाई।।12।। सहज दास जिस दीप रहंता। कारण कौंन कौंन कुल पंथा।।13।। धर्मराय बोले दरबानी। सुनो सहज दास ब्रह्मज्ञानी।।14।। चैसठ जुग हम सेवा कीन्ही। पुरुष पृथिवी हम कूं दीन्ही।।15।। चंचल रूप भया मन बौरा। मनमोहिनी ठगिया भौंरा।।16।। सतपुरुष के ना मन

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दैवीय शक्तियां vs आसुरी शक्तियां सन् 2020    30/70 सन् 2021     50/50 सन् 2022    70/30 सन् 2023    100/0 सत्य का राज सन् 2023 साभार : डॉ. अंजली गाडगिल

ऋषि रामानन्द, सेऊ, सम्मन तथा नेकी व कमाली के पूर्व जन्मों का ज्ञान’’

‘‘ऋषि रामानन्द, सेऊ, सम्मन तथा नेकी व कमाली के पूर्व जन्मों का ज्ञान’’ ऋषि रामानन्द जी का जीव सत्ययुग में विद्याधर ब्राह्मण था जिसे परमेश्वर सत्य सुकृत नाम से मिले थे। त्रेता युग में वह वेदविज्ञ नामक ऋषि था जिसको परमेश्वर मुनिन्द्र नाम से शिशु रूप में प्राप्त हुए थे तथा कमाली वाली आत्मा सत्य युग में विद्याधर की पत्नी दीपिका थी। त्रेता युग में सूर्या नाम की वेदविज्ञ ऋषि की पत्नी थी। उस समय इन्होनें परमेश्वर को पुत्रवत् पाला तथा प्यार किया था। उसी पुण्य के कारण ये आत्माएँ परमात्मा को चाहने वाली थी। कलयुग में भी इनका परमेश्वर के प्रति अटूट विश्वास था। ऋषि रामानन्द व कमाली वाली आत्माएँ ही सत्ययुग में ब्राह्मण विद्याधर तथा ब्राह्मणी दीपीका वाली आत्माएँ थी जिन्हें ससुराल से आते समय कबीर परमेश्वर एक तालाब में कमल के फूल पर शिशु रूप में मिले थे। यही आत्माएँ त्रेता युग में (वेदविज्ञ तथा सूर्या) ऋषि दम्पति थे। जिन्हें परमेश्वर शिशु रूप में प्राप्त हुए थे। सम्मन तथा नेकी वाली आत्माएँ द्वापर युग में कालू वाल्मीकि तथा उसकी पत्नी गोदावरी थी। जिन्होंने द्वापर युग में परमेश्वर कबीर जी का शिशु रूप में

जीवा तथा दत्ता (तत्वा) को शरण में लेकर, उनका उद्धार करना।

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किस किस को मिले कबीर परमेश्वर?  जीवा तथा दत्ता (तत्वा) को शरण में लेकर, उनका उद्धार करना। एक समय की बात है। गुजरात के अंदर एक भरुच शहर है। भरुच शहर में मंगलेश्वर नामक गाँव है। उस गाँव के साथ में नर्मदा नदी एक स्थान को दो हिस्से करके टापू बनाती है।  आज से लगभग 550 (साढ़े पांच सौ) वर्ष पहले वहां एक शुक्ल तीर्थ नाम का गाँव बसा हुआ था।  उसमें तीस-चालीस घर थे। उस गाँव में जीवा और तत्वा नाम के दो ब्राह्मण भाई रहा करते थे।  उन्होंने संतों के सत्संग सुने।  जो वास्तव में संत होते हैं, वे यही कहा करते हैं कि पूरे संत के बिना जीव उद्धार नहीं होगा।  इन अधूरे गुरुओं के चक्कर में मनुष्य शरीर बर्बाद हो जाएगा। फिर न जाने कब और कौन से युग में मानव शरीर प्राप्त होगा? तब तक यह प्राणी चौरासी में चक्कर काटता रहेगा। मनुष्य शरीर का  मिलना कोई बच्चों का खेल नहीं है। इसको ऐसे ही गवां देना, यह कोई समझदारी नहीं है। अब उन दोनों भाइयों ने फैसला किया कि बात तो ज्यों की त्यों है कि यह मनुष्य शरीर का मिलना कोई बार-बार नहीं होता। यदि इससे सत भक्ति न हुयी तो इसकी कोई कीमत नहीं है। यदि इससे मालिक की भक्ति हो