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Showing posts from October, 2021

दास की परिभाषा‘‘

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‘‘दास की परिभाषा‘‘ एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा कि:-  दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।। सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी न

सवाल : क्या किसी जज/मजिस्ट्रेट के खिलाफ कोई कार्रवाई होती है और अगर होती है तो कैसे ?

सवाल : क्या किसी जज/मजिस्ट्रेट के खिलाफ कोई कार्रवाई होती है और अगर होती है तो कैसे ? जवाब : इस सवाल के 3 टुकड़े  इस प्रकार करने होंगे- 1. DJ(जिला एवं सत्र न्यायाधीश) से न्यायिक मजिस्ट्रेट 2. हाईकोर्ट जज 3. सुप्रीम कोर्ट 1. DJ(जिला एवं सत्र न्यायाधीश) से न्यायिक मजिस्ट्रेट : इनके खिलाफ भारत का कोई भी नागरिक(मालिक), सम्बंधित हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को शिकायत कर सकता है, साक्ष्यों के साथ अगर सही शिकायत डाक से भेजी जाती है तो कार्रवाई जरूर होती है। राजस्थान हाईकोर्ट के मामले में जोधपुर और जयपुर में एक-एक विजीलेंस रजिस्ट्रार बैठते हैं, जिनका काम ही यह है कि मजिस्ट्रेटों/जजों के खिलाफ प्राप्त शिकायतों पर कार्रवाई सुनिश्चित कराना अथवा ऐसे जजों को नौकरी से निकलवाकर घर भेजना... 2. हाईकोर्ट जज : सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एवं 2 अन्य वरिष्ठ जजों को मिलाकर कॉलेजियम बनता है, यह कॉलेजियम शिकायत प्राप्त होने पर ऐसे हाईकोर्ट जज का ट्रांसफर अन्य हाईकोर्ट में कर सकता है, साथ ही ऐसे हाईकोर्ट जज को काम दिए जाने पर रोक लगा सकता है क्योंकि हाईकोर्ट जजों सहित सभी सुप्रीमकोर्ट जजों को केवल महाभियोग की प्रक्रि

ब्रह्मा के छः अवतार लिखे हैं:-

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ब्रह्मा के छः अवतार लिखे हैं:- 1) गौतम 2) कणांद 3) व्यास ऋषि 4) जैमनी 5) मंडनमिश्र 6) मीमासंकहि  शिव जी के ग्यारह रूद्रों के नाम बताए हैं:- 1) सर्प कपाली 2) त्रयंबक 3) कपि 4) मृग 5) व्याधि 6) बहुरूप 7) वृष 8) शम्भु 9) हरि 10) रैवत 11) बीरभद्र। ब्रह्मा जी के दैहिक तथा मानस पुत्रों के नाम:- सर्व प्रथम दो पुत्रों का जन्म श्री ब्रह्मा जी से हुआ:- 1) दक्ष 2) अत्री। इससे आगे शाखा चली हैं। पृष्ठ 14 (1704) से 16 (1706) तक:- चौदह (14) विष्णु के नाम, चौदह (14) इन्द्र के नाम, चौदह मनु के नाम, सप्त स्वर्ग के नाम {भूः, भवः, स्वर्ग, महरलोक, जनलोक, तपलोक, सतलोक (नकली)} सर्व पातालों के नाम:- अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल व रसातल। नौ धरों के नाम:- 1) भूः लोक (भूमि) 2) भुवर् लोक = भूवः लोक यानि जल तत्त्व से निर्मित स्थान जैसे बर्फ जम जाने के पश्चात् उसके ऊपर खेल का मैदान बनाकर शीतल देशों में बच्चे खेलते हैं। 3) स्वर = स्वः = स्वर्ग लोक जो अग्नि तत्त्व से निर्मित है। जैसे काष्ठ में अग्नि है, उससे जापान देश में भवन बनाए जाते हैं। जैसे प्लाईवुड पर चित्रकारी करके चमकाया जाता है। ऐसा स्वर्

अध्याय राजा बीर देव सिंह बोध का

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अध्याय राजा बीर देव सिंह बोध का  राजा तथा रानी को प्रथम नाम सात मंत्र का दिया प्रमाण:- कबीर सागर के अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ के पृष्ठ 113 परः- ‘‘कबीर वचन‘‘ करि चैका तब नरियर मोरा। करि आरती भयो पुनि भोरा।। तिनका तोरि पान लिखि दयऊ। रानी राय अपन करि लयऊ।। बहुतक जीव पान मम पाये। ताघट पुरूष नाम सात आये।। जो कोइ हमारा बीरा पावै। बहुरि न योनी संकट आवै।। बीरा पावे भवते छूटे। बिनु बीरा यम धरि-धरि लूटे।। सत्य कहूँ सुनु धर्मदासा। विनु बीरा पावै यम फांसा।। बीरा पाय राय भये सुभागा। सत्य ज्ञान हृदय में जागा।। काल जाल तब सबै पराना। जब राजा पायो परवाना।। गदगद कंठ हरष मन बाढा। विनती करै राजा होय ठाढा।। प्रेमाश्रु दोइ नयन ढरावै। प्रेम अधिकता वचन न आवै।। राजा बीर सिंह का स्तुति करना करूणारमन सद्गुरू अभय मुक्तिधामी नाम हो।। पुलकित सादर प्रेम वश होय सुधरे सो जीवन काम हो।। भवसिन्धु अति विकराल दारूण तासु तत्त्व बुझायऊ।। अजर बीरा नाम दै मोहि। पुरूष दरश करायऊ।। सोरठा-राय चरण गहे धाय, चलिये वहि लोक को।। जहवाँ हंस रहाय, जरा मरण जेहि घर नहीं।। कबीर वचन आदि अंत जब नहीं निवासा। तब नहिं दूसर हते अवासा।। त

कमाल का गुरू विमुख होना

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कमाल का गुरू विमुख होना इस लीला को देखकर कमाल को समझ आई कि मैं तो इनकी सेवा-बलिदान के सामने सूर्य के समक्ष दीपक हूँ, परंतु अभिमान नहीं गया। नाम खण्ड हो चुका था। कुछ समय पश्चात् काल प्रेरणा से एक दिन परमेश्वर कबीर जी को त्यागकर अपने प्रशंसकों के साथ अन्य ग्राम में जाकर रहने लगा। दीक्षा देने लगा। पहले तो बहुत से अनुयाई हो गए, परंतु बाद में उनको हानि होने लगी। कोई माता पूजने लगा, कोई मसानी। कारण यह हुआ कि जो भक्ति साधकों ने परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा लेकर की थी। वह जब तक चली, उनको लाभ होते रहे। वे मानते रहे कि यह लाभ कमाल गुरू जी के मंत्रों से हो रहे हैं। कमाल जी के आशीर्वाद से हमें लाभ हो रहा है। पूर्व की भक्ति समाप्त होते ही वे पुनः दुःखी रहने लगे। कमाल जी के पास कभी-कभी औपचारिकता करने जाने लगे। जैसे इन्वर्टर की बैटरी को चार्जर लगा रखा था, वह कुछ चार्ज हुई थी। चार्जर हट गया। फिर भी इन्वर्टर अपना काम कर रहा होता है। बैटरी की क्षमता समाप्त होते ही सर्व सुविधा जो इन्वर्टर से प्राप्त थी, वे बंद हो गई। इसी प्रकार उन मूर्ख भक्तों का जीवन व्यर्थ हो गया। कमाल जी को नामदान की आज्ञा न

नरक का वर्णन’’

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‘‘नरक का वर्णन’’  परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! और सुन कि क्या-क्या यातना किन अपराधों में दी जाती है? जो ब्रह्म हत्या (वेद-शास्त्र पढ़ने-पढ़ाने वाले ब्राह्मण) की हत्या करता है। उसको सर्वाधिक दण्ड दिया जाता है। जो विश्वासघात करता है, जो अपने गुरू या स्वामी की हत्या करता है, जो बच्चे या वृद्ध को मारता है, उनको उबलते तेल में डाला जाता है। अन्य अपराध :- जो परदार (परस्त्री) तथा परक्षेत्र को छीन लेता है, जो सीमा में गड़बड़ (हेराफेरी) करता है, वे भयंकर नरक में गिरते हैं। उनके सिर काटे जाते हैं। जो चोरी करता है, गुरूद्रोही, मदिरा पीने वाला, झूठ बोलने वाला, दूसरे की निंदा करने वाला है। तिन पापीन को यम विकराला। भयंकर नरक माँझ तेही डाला।। जो दूसरे की साधना में बाधा करता है, जो वेद-शास्त्र को नहीं पढ़ता, जो परमात्मा की चर्चा सुनकर जलता है, औरों का मन भी विचलित करता है, वह साकट व्यक्ति है। उसके तन को नरक में सूअर खाते हैं। जो मित्र को मारता है, वह घोर नरक में जाता है। जो गुरू के धन को हड़पता (चुराता) है, वह क्रीमी नरक (कीड़ों के कुण्ड) में डाला जाता है। जो गुरू पद पर विराजमान ह

कबीर, ज्ञानी रोगी अर्थार्थी जिज्ञासू ये चार। सो सब ही हरि ध्यावते ज्ञानी उतरे पार।।

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कबीर, मान अपमान सम कर जानै, तजै जगत की आश। चाह रहित संस्य रहित, हर्ष शोक नहीं तास।। भावार्थ:- भक्त को चाहे कोई अपमानित करे, उस और ध्यान न दे। उसकी बुद्धि पर रहम करे और जो सम्मान करता है, उस पर भी ध्यान न दे यानि किसी के सम्मानवश होकर अपना धर्म खराब न करे। हानि-लाभ को परमात्मा की देन मानकर संतोष करे। कबीर, मार्ग चलै अधो गति, चार हाथ मांही देख। पर तरिया पर धन ना चाहै समझ धर्म के लेख।। भावार्थ:- भक्त मार्ग पर चलते समय नीचे देखकर चले। भक्त की दृष्टि चलते समय चार हाथ यानि 6 फुट दूर सामने रहनी चाहिए। धर्म-कर्म के ज्ञान का विचार करके परस्त्राी तथा परधन को देखकर दोष दृष्टि न करे। कबीर, पात्र कुपात्र विचार कर, भिक्षा दान जो लेत। नीच अकर्मी सूम का, दान महा दुःख देत।। भावार्थ:- संत यानि गुरू को अपने शिष्य के अतिरिक्त दान-भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। कुकर्मी तथा अधर्मी का धन बहुत दुःखी करता है। पृष्ठ 188 पर सामान्य ज्ञान है। धर्म बोध पृष्ठ 189 पर:- कबीर, इन्द्री तत्त्व प्रकृति से, आत्म जान पार। जाप एक पल नहीं छूटै, टूट न पावै तार।। भावार्थ:- आत्मा को पाँचों तत्त्वों से भिन्न जानै। शरीर आत्मा नहीं है। न

अध्याय "हनुमान बोध" का सारांश | जीने की राह Part -B*

*अध्याय "हनुमान बोध" का सारांश | जीने की राह Part -B* 📜विचार करने की बात है। यदि कोई भार उठाता है तो दोनों हाथों से या एक हाथ से पकड़कर उठा लेता है, परंतु उसी भार को किसी डण्डे से उठाना चाहे तो कदापि नहीं उठा सकता। थोड़े भार को ही डण्डे से उठा सकता है। भरत जी ने महाबली हनुमान जी तथा द्रोणागिरी को धरती से 50 फुट ऊपर उठा दिया। त्रोतायुग में मनुष्य की ऊँचाई लगभग 70 या 80 फुट होती थी। यह कोई सामान्य बात नहीं है। कोई किसी व्यक्ति को डण्डे से उठाकर देखे, कैसा महसूस होगा? लक्ष्मण को वैद्य ने संजीवनी औषधि पिलाकर स्वस्थ किया। युद्ध हुआ, रावण मारा गया। रावण ने प्रभु शिव की भक्ति की थी। अपने दस बार शीश काटकर शिव जी को भेंट किए थे। दस बार शिव जी ने उसको वापिस कर दिए तथा आशीर्वाद दिया कि तेरी मृत्यु दस बार गर्दन काटने के पश्चात् होगी। रावण के दस बार सिर काटे गए थे। फिर नाभि में तीर लगने से नाभि अमृत नष्ट होने से रावण का वध हुआ था। दस बार सिर कटे, दस बार वापिस सिर धड़ पर लग गए। फिर विभीषण के बताने पर कि रावण की नाभि में अमृत है, रामचन्द्र ने रावण की नाभि में तीर मारने की पूरी कोशिश कर ली थी,

नरक का वर्णन’’

‘‘नरक का वर्णन’’  किसी स्थान पर पापी प्राणियों को कोल्हू में पीड़ा जा रहा था, कहीं उल्टा लटका रखा था, कहीं गर्म खंभों से बाँध रखा था। कई प्रकार से चीस (कष्ट) दी जा रही थी। कहीं पर यमदूत पापी प्राणियों को चबा-चबाकर खा रहे थे। कुछ डर के मारे इधर-उधर भाग रहे थे, परंतु कोई बच नहीं पा रहा था। किसी को नरक कुण्डों में डाल रखा था। कोई सिर में मोगरी (छोटे-मोटे डण्डे) मार रहा था। 84 नरक कुण्ड बने हैं। यह दृश्य आँखों से देखकर राजा व्याकुल हो गया। किसी कुण्ड में रूधिर (ठसववक) भरा था। किसी में पीब (मवाद) तो किसी में मूत्र भरा था जिनकी गहराई एक योजन (12 कि.मी.) तथा चार योजन (48 किमी.) परिधि  यानि गोलाई और चार योजन तक दुर्गन्ध जाती है। इन चार कुण्डों का तो यह वर्णन है। पाँचवें में अग्नि जल रही थी, बहुत जीव उसमें जल रहे थे। यह बहुत लम्बा-चौड़ा है, गहरा है। राजा अमर सिंह उस नरक को देखकर भयभीत था, कुछ बोल नहीं पा रहा था। जो झूठ बोलकर स्वार्थ पूर्ति करता है, उसकी जीभ काट रखी थी। जो झूठी गवाही देता था, उसको सर्प की जीभ लगा रखी थी। जो निर्दोष को मारता है, उसकी पिटाई हो रही थी। जो स्त्री अपने पति को छोड़कर

बच्चों को शिक्षा अवश्य दिलानी चाहिए

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बच्चों को शिक्षा अवश्य दिलानी चाहिए कबीर, मात पिता सो शत्रु हैं, बाल पढ़ावैं नाहिं। हंसन में बगुला यथा, तथा अनपढ़ सो पंडित माहीं।। भावार्थ:- जो माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाते नहीं, वे अपने बच्चों के शत्रु हैं। अशिक्षित व्यक्ति शिक्षित व्यक्तियों में ऐसा होता है जैसे हंस पक्षियों में बगुला। यहाँ पढ़ाने का तात्पर्य धार्मिक ज्ञान कराने से है, सत्संग आदि सुनने से है। यदि किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है तो वह शुभ-अशुभ कर्मों को नहीं जान पाता। जिस कारण से वह पाप करता रहता है। जो सत्संग सुनते हैं। उनको सम्पूर्ण कर्मों का तथा अध्यात्म का ज्ञान हो जाता है। वह कभी पाप नहीं करता। वह हंस पक्षी जैसा है जो सरोवर से केवल मोती खाता है, जीव-जंतु, मछली आदि-आदि नहीं खाता। इसके विपरीत अध्यात्म ज्ञानहीन व्यक्ति बुगले पक्षी जैसे स्वभाव का होता है। बुगला पक्षी मछली, कीड़े-मकोड़े आदि-आदि जल के जंतु खाता है। शरीर से दोनों (हंस पक्षी तथा बुगला पक्षी) एक जैसे आकार तथा सफेद रंग के होते हैं। उनको देखकर नहीं पहचाना जा सकता। उनके कर्मों से पता चलता है। इसी प्रकार तत्त्वज्ञान युक्त व्यक्ति शुभ कर्मों

गरूड़ बोध‘‘

   *कबीर सागर में 11वां अध्याय ‘‘गरूड़ बोध‘‘ पृष्ठ 65 (625) पर है:-*   📜परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बताया कि मैंने विष्णु जी के वाहन पक्षीराज गरूड़ जी को उपदेश दिया, उसको सृष्टि रचना सुनाई। अमरलोक की कथा सत्यपुरूष की महिमा सुनकर गरूड़ देव अचम्भित हुआ। अपने कानों पर विश्वास नहीं कर रहे थे। मन-मन में विचार कर रहे थे कि मैं आज यह क्या सुन रहा हूँ? मैं कोई स्वपन तो नहीं देख रहा हूँ। मैं किसी अन्य देश में तो नहीं चला गया हूँ। जो देश और परमात्मा मैंने सुना है, वह जैसे मेरे सामने चलचित्रा रूप में चल रहा है। जब गरूड़ देव इन ख्यालों में खोए थे, तब मैंने कहा, हे पक्षीराज! क्या मेरी बातों को झूठ माना है। चुप हो गये हो। प्रश्न करो, यदि कोई शंका है तो समाधान कराओ। यदि आपको मेरी वाणी से दुःख हुआ है तो क्षमा करो। मेरे इन वचनों को सुनकर खगेश की आँखें भर आई और बोले कि हे देव! आप कौन हैं? आपका उद्देश्य क्या है? इतनी कड़वी सच्चाई बताई है जो हजम नहीं हो पा रही है। जो आपने अमरलोक में अमर परमेश्वर बताया है, यदि यह सत्य है तो हमें धोखे में रखा गया है। यदि यह बात असत्य है तो आप निंदा के पात्रा हैं, अपराधी ह

जिन हर की चोरी करी और गए राम गुण भूल। ते विधना बागुल किए, रहे ऊर्ध मुख झूल।।

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कबीर, यद्यपि उत्तम कर्म करि, रहै रहित अभिमान। साधु देखी सिर नावते, करते आदर मान।। भावार्थ:- अभिमान त्यागकर श्रेष्ठ कर्म करने चाहिऐं। संत, भक्त को आता देखकर शीश झुकाकर प्रणाम तथा सम्मान करना चाहिए। कबीर, बार-बार निज श्रवणतें, सुने जो धर्म पुराण। कोमल चित उदार नित, हिंसा रहित बखान।। भावार्थ:- भक्त को चाहिए कि वह बार-बार धर्म-कर्म के विषय में सत्संग ज्ञान सुने और अपना चित कोमल रखे। अहिंसा परम धर्म है। ऐसे अहिंसा संबंधी प्रवचन सुनने चाहिऐं। कबीर, न्याय धर्मयुक्त कर्म सब करैं, न कर ना कबहू अन्याय। जो अन्यायी पुरूष हैं, बन्धे यमपुर जाऐं।। भावार्थ:- सदा न्याययुक्त कर्म करने चाहिऐं। कभी भी अन्याय नहीं करना चाहिए। जो अन्याय करते हैं, वे यमराज के लोक में नरक में जाते हैं। धर्म बोध पृष्ठ 181 का सारांश:- कबीर, गृह कारण में पाप बहु, नित लागै सुन लोय। ताहिते दान अवश्य है, दूर ताहिते होय।। कबीर, चक्की चैंकै चूल्ह में, झाड़ू अरू जलपान। गृह आश्रमी को नित्य यह, पाप पाँचै विधि जान।। भावार्थ:- गृहस्थी को चक्की से आटा पीसने में, खाना बनाने में चूल्हे में अग्नि जलाई जाती है। चैंका अर्थात् स्थान ल

दान करना कितना अनिवार्य है

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दान करना कितना अनिवार्य है कबीर, मनोकामना बिहाय के हर्ष सहित करे दान। ताका तन मन निर्मल होय, होय पाप की हान।। कबीर, यज्ञ दान बिन गुरू के, निश दिन माला फेर। निष्फल वह करनी सकल, सतगुरू भाखै टेर।। प्रथम गुरू से पूछिए, कीजै काज बहोर। सो सुखदायक होत है, मिटै जीव का खोर।। भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने बताया है कि बिना किसी मनोकामना के जो दान किया जाता है, वह दान दोनों फल देता है। वर्तमान जीवन में कार्य की सिद्धि भी होगी तथा भविष्य के लिए पुण्य जमा होगा और जो मनोकामना पूर्ति के लिए किया जाता है। वह कार्य सिद्धि के पश्चात् समाप्त हो जाता है। बिना मनोकामना पूर्ति के लिए किया गया दान आत्मा को निर्मल करता है, पाप नाश करता है। पहले गुरू धारण करो, फिर गुरूदेव जी के निर्देश अनुसार दान करना चाहिए। बिना गुरू के कितना ही दान करो और कितना ही नाम-स्मरण की माला फेरो, सब व्यर्थ प्रयत्न है। यह सतगुरू पुकार-पुकारकर कहता है। प्रथम गुरू की आज्ञा लें, तब अपना नया कार्य करना चाहिए। वह कार्य सुखदायक होता है तथा मन की सब चिंता मिटा देता है। कबीर, अभ्यागत आगम निरखि, आदर मान समेत। भोजन छाजन, बित यथा, सदा

इस जीव को विकार नचा रहे हैं। काम क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार।

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अध्याय ‘‘विवेक सागर’’  कबीर सागर का पाँचवा अध्याय ‘‘विवेक सागर‘‘ पृष्ठ 68(354) पर :- इस अध्याय में कहा है कि :- इस जीव को विकार नचा रहे हैं। काम क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार। जिनके वश काल लोक की महान शक्तियाँ भी हैं। जैसे ब्रह्मा जी जो अपनी पुत्र को देखकर कामवश प्रेरित हो गया था तथा अहंकार के कारण श्री ब्रह्मा जी तथा श्री विष्णु जी का युद्ध हुआ। काम वासना के वश बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि भी अपना धर्म-कर्म नष्ट कर गए। इन सर्व विकारों से बचकर मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र मार्ग तत्त्वज्ञान है तथा सारनाम है। इस पूरे विवेक सागर में यह सारांश है।  अध्याय ‘‘सर्वज्ञ सागर’’ का सारांश कबीर सागर का छठा अध्याय ‘‘सर्वज्ञ सागर‘‘ पृष्ठ 127(403) पर :- परमेश्वर कबीर जी से धर्मदास जी ने बार-बार प्रश्न किए। परमात्मा ने बार-बार ज्ञान दोहराया था इस सर्वज्ञ सागर में अधिक ज्ञान वही है जो पहले के अध्यायों में आप पढ़ चुके हैं। यहाँ पुनः लिखने की आवश्यकता नहीं है। कुछ संक्षिप्त सार लिखता हूँ। परमेश्वर कबीर जी ने कितने जीव कौन से युग में पार किए? सत्ययुग का वर्णन सतयुग चारि हंस समझाये। प्रथम राय मित्रा सैंन ही

कलयुग में मानव का व्यवहार

कलयुग में मानव का व्यवहार परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि हे धर्मदास! कलयुग में कोई बिरला ही भक्ति करेगा अन्यथा पाखण्ड तथा विकार करेंगे। आत्मा भक्ति बिना नहीं रह सकती, परंतु कलयुग में मन (काल का दूत है मन) आत्मा को अधिक आधीन करके अपनी चाल अधिक चलता है। कलयुग में मनुष्य ऐसी भक्ति करेगा। गुरू के सम्मुख तो श्रद्धा का पूर्ण दिखावा करेगा, पीछे से गुरू में दोष निकालेगा, निंदा करेगा। जिस कारण से भक्त का स्वाँग करके भी जीवन-जन्म नष्ट करके जाएगा। कलयुग में संतों में अभिमान होगा। सब संतों में अहंकार समाया रहेगा। अहंकार काल का दूसरा रूप है। मन अहंकार का बर्तन है। कोई बिरला साधु होगा जो अहंकार से बचेगा। अधिकतर साधु दूसरे साधु को देखकर ईष्र्या करेंगे। इसलिए चैरासी लाख प्राणियों के जन्मों में भटकेंगे। घर-घर में गुरू बनकर जाएंगे। अपनी महिमा बनाएंगे। सतगुरू यानि तत्त्वदर्शी संत को देखकर जल मरेंगे। चैंका बैठ (पाठ करने के आसन पर बैठकर) कर बहुत फूलेंगे। स्त्राी देखकर तो कुर्बान हो जाएंगे। जब भी किसी घर में जाएंगे तो सुंदर स्त्राी को देखकर अभद्र संकेत आँखों से करेंगे। फिर बनावटी उपदेश करेंगे। प्रसाद वितरित क

अध्याय जैन धर्म बोध 2

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अध्याय जैन धर्म बोध 2 जैन धर्म में दो प्रकार के साधु हैं:- 1) बिल्कुल नंगे रहते हैं जो पूर्व के महापुरूषों की नकल कर रहे हैं। जैन धर्म की स्त्री, पुरूष, युवा लड़के-लड़कियां, बच्चे-वृद्ध सब उन नंगे साधुओं की पूजा करते हैं।  2) इनको दिगंबर साधु कहा जाता है। इनमें स्त्रियों को साधु नहीं बनाया जाता। विचारणीय विषय है कि क्या स्त्री को मोक्ष नहीं चाहिए। यदि आपका मार्ग सत्य है तो स्त्रियों को भी करो नंगा, निकालो जुलूस। सच्चाई को न मानकर मात्र परंपरा का निर्वाह करने से परमात्मा प्राप्ति नहीं होती। 2) दूसरे साधु श्वेताम्बर हैं। वे सफेद वस्त्र, मुख पर कपड़े की पट्टी रखते हैं। इसमें स्त्रियां भी साधु हैं। मारीचि जी के जीव ने प्रथम तीर्थकंर ऋषभ देव जी से दीक्षा लेकर साधना की थी जो ऋषभ देव जी की बताई साधना विधि थी। उसके परिणामस्वरूप गधा, कुत्ता, घोड़ा, बिल्ली, धोबी, वैश्या का जीवन भोगा और स्वर्ग-नरक में भटके। फिर महाबीर जैन बने। महाबीर जी ने तो किसी से धर्मदेशना (दीक्षा) भी नहीं ली थी यानि गुरू नहीं बनाया था। उन्होंने तो मनमाना आचरण करके साधना की जिसको गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ

ॐ तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः ।ब्राह्मणाः तेन वेदाः यज्ञाः च विहिता पुरा ।।

गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में इस परम अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति के मन्त्र बताए हैं : ॐ तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः । ब्राह्मणाः तेन वेदाः यज्ञाः च विहिता पुरा ।। ब्रह्मणः = सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति की साधना के अर्थात् परमेश्वर के उस परमपद को प्राप्त करने के मन्त्र बताए हैं, जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते हैं। जहाँ परम शान्ति को प्राप्त होते हैं जो सनातन परम धाम है। ॐ = "ब्रह्म" अर्थात् "क्षर पुरुष" का मन्त्र है जो प्रत्यक्ष है। तत् = यह "अक्षर पुरूष" का जाप मन्त्र है। यह मन्त्र सांकेतिक है, वास्तविक मन्त्र सूक्ष्मवेद में बताया है। यह मन्त्र दीक्षा के समय दीक्षार्थी को सार्वजनिक किया जाता है, अन्य को नहीं बताया जाता। सत् = यह "परम अक्षर पुरुष" की साधना का मन्त्र है। यह भी सांकेतिक है। दीक्षार्थी को दीक्षा के समय बताया जाता है। यथार्थ मन्त्र सूक्ष्मवेद में लिखा है। यही प्रमाण सामवेद के मंत्र सँख्या 822 में भी है कि तीन नाम के जाप से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है : संख्या न. 822

अध्याय जैन धर्म

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अध्याय जैन धर्म बोध का  कबीर सागर में 31वां अध्याय ‘‘जैन धर्म बोध परमेश्वर कबीर जी ने जैन धर्म की जानकारी इस प्रकार बताई है। अयोध्या का राजा नाभिराज था। उनका पुत्र ऋषभ देव था जो अयोध्या का राजा बना। धार्मिक विचारों के राजा थे। जनता के सुख का विशेष ध्यान रखते थे। दो पत्नी थी। कुल 100 पुत्र तथा एक पुत्री थी। बड़ा पुत्र भरत था।  कबीर परमेश्वर जी अपने विधान अनुसार अच्छी आत्मा को मिलते हैं। उसी गुणानुसार ऋषभ देव के पास एक ऋषि रूप में गए। अपना नाम कबि ऋषि बताया। उनको आत्म बोध करवाया। शब्द सुनाया, मन तू चल रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर जो आप जी ने पढ़ा आत्म बोध के सारांश में पृष्ठ 373-374 पर। यह सत्संग सुनकर राजा ऋषभ देव जी की आत्मा को झटका लगा जैसे कोई गहरी नीन्द से जागा हो। ऋषभ देव जी के कुल गुरू जो ऋषिजन थे, उनसे परमात्मा प्राप्ति का मार्ग जानना चाहा। उन्होंने ¬ नाम तथा हठयोग करके तप करने की विधि दृढ़ कर दी। राजा ऋषभ देव को परमात्मा प्राप्ति करने तथा जन्म-मरण के दुःखद चक्र से छूटने के लिए वैराग्य धारण करने की ठानी। अपने बड़े बेटे भरत जी को अयोध्या का राज्य दे दिया तथा अन्

सातवें तारण युग का वर्णन‘‘

‘‘सातवें तारण युग का वर्णन‘‘  अम्बुसागर 23 पृष्ठ पर :- कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! आपको तारण युग की कथा सुनाता हूँ। एक उत्तम पंथ नाम का राजा था। धन-धान्य से परिपूर्ण था। हमारा पिछले जन्म में शिष्य था। किसी कारण से काल-जाल में रह गया था। काल हाथों चढ़ा व्यक्ति कोरे पाप करता है। उसको भक्तिहीन करने के लिए काल ब्रह्म उसके कर्म खराब करवाता है। जिसके पास आवश्यकता से अधिक माया होती है, वह परमात्मा को भूलकर अपना जन्म नष्ट करता है। राजा उत्तम पंथ बहुत अन्यायी हो गया था। ब्राह्मण, ऋषि, सन्यासियों को देखकर क्रोधित होता था। उनके वेद-शास्त्रा, जनेऊ तोड़कर अग्नि में डाल देता था। इतना अत्याचार कर रहा था। पशु-पक्षियों को शिकार कर-करके मारता था। प्रजा को अति कष्ट दे रहा था। मैं एक दिन उस राजा के महल (भ्वनेम) के सामने वट वृक्ष के नीचे संत वेष में बैठ गया। एक सगुनिया नाम की नौकरानी ने कहा कि राजा आपको मार देगा, आप यहाँ से चले जाओ। मैं उठकर दरिया के किनारे जा बैठा। राजा इक्कीस ड्योडी के अंदर अपनी पत्नी के साथ रहता था। जब उसको पता चला तो मुझे मारने के लिए आया। मैं नहीं मिला तो वापिस चला गया।

युगन युगन के बिछुड़े मिले तुम आय कै प्रेम करि अंग से अंग लाए।।

*दश मुकामी रेखता | जीने की राह* 📜कबीर सागर अध्याय ‘‘मोहम्मद बोध‘‘ पृष्ठ 20, 21 तथा 22 पर दश मुकामी रेखता दश मुकामी रेखता पृष्ठ 21 से कुछ अंश लिखता हूँ:- भया आनन्द फन्द सब छोड़िया पहँुचा जहाँ सत्यलोक मेरा।। {हंसनी (नारी रूप पुण्यात्माऐं) हंस (नर रूप पुण्यात्माऐं)} हंसनी हंस सब गाय बजाय के साजि के कलश मोहे लेन आए।। युगन युगन के बिछुड़े मिले तुम आय कै प्रेम करि अंग से अंग लाए।। पुरूष दर्श जब दीन्हा हंस को तपत बहु जन्म की तब नशाये।। पलिट कर रूप जब एक सा कीन्हा मानो तब भानु षोडश (16) उगाये।। पहुप के दीप पयूष (अमृत) भोजन करें शब्द की देह सब हंस पाई।। पुष्प का सेहरा हंस और हंसनी सच्चिदानंद सिर छत्रा छाए।। दीपैं बहु दामिनी दमक बहु भांति की जहाँ घन शब्द को घमोड़ लाई।। लगे जहाँ बरसने घन घोर कै उठत तहाँ शब्द धुनि अति सोहाई।। सुन्न सोहैं हंस-हंसनी युत्थ (जोड़े-झुण्ड) ह्नै एकही नूर एक रंग रागै।। करत बिहार (सैर) मन भावनी मुक्ति में कर्म और भ्रम सब दूर भागे।। रंक और भूप (राजा) कोई परख आवै नहीं करत कोलाहल बहुत पागे।। काम और क्रोध मदलोभ अभिमान सब छाड़ि पाखण्ड सत शब्द लागे।। पुरूष के बदन (शरीर) कौन महिमा कह