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Showing posts from February, 2020

दास की परिभाषा‘‘

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‘‘दास की परिभाषा‘‘ एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा कि:-  दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।। सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी न

सत्संग से मिली जीने की राह"

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सत्संग से मिली भक्ति की राह"  संत नित्यानंद जी का बचपन का नाम नंदलाल था। वे ब्राह्मण कुल में जन्मे थे। संत गरीबदास जी (गाँव छुड़ानी जिला-झज्जर) के कुछ समय समकालीन थे। संत गरीबदास जी का जीवन सन् 1717-1778 तक रहा था। उस समय ब्राह्मणों का विशेष सम्मान किया जाता था। सर्वोच्च जाति मानी जाती थी। जिस कारण से गर्व का होना स्वाभाविक था। नंदलाल जी के माता-पिता का देहांत हो गया था। उस समय वे 7.8 वर्ष के थे। आप जी के नाना जी नारनौल के नवाब के कार्यालय में उच्च पद पर विराजमान थे। आप जी का पालन-पोषण नाना-नानी जी ने किया। शिक्षा के उपरांत नाना जी ने अपने दोहते नंदलाल को नारनौल में तहसीलदार लगवा दिया। एक तो जाति ब्राह्मण, दूसरे उस समय तहसीलदार का पद। जिस कारण से अहंकार का होना सामान्य बात है। तहसीलदार जी का विवाह भी नाना-नानी ने कर दिया था। तहसीलदार जी के महल से थोड़ी दूरी पर एक वैष्णव संत श्री गुमानी दास जी अपने किसी भक्त के घर सत्संग कर रहे थे। वे श्री विष्णु जी के भक्त थे। सर्व संत जन अपने सत्संग में परमात्मा कबीर जी की अमृतवाणी का सहयोग अवश्य लेते थे। सत्संग में बताया गया कि मानव जीवन क

गलत समझने से पहले एक बार अच्छी सोच

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एक बादशाह की आदत थी, कि वह भेस बदलकर लोगों की खैर-ख़बर लिया करता था,एक दिन अपने वज़ीर के साथ गुज़रते हुए शहर के किनारे पर पहुंचा तो देखा एक आदमी गिरा पड़ा हैl बादशाह ने उसको हिलाकर देखा तो वह मर चुका था ! लोग उसके पास से गुज़र रहे थे, बादशाह ने लोगों को आवाज़ दी लेकिन कोई भी उसके नजदीक नहीं आया क्योंकि लोग बादशाह को पहचान ना सके । बादशाह ने वहां रह रहे लोगों से पूछा क्या बात है? इस को किसी ने क्यों नहीं उठाया? लोगों ने कहा यह बहुत बुरा और गुनाहगार इंसान है ।। बादशाह ने कहा क्या ये "इंसान" नहीं है? और उस आदमी की लाश उठाकर उसके घर पहुंचा दी, और उसकी पत्नी को लोगों के रवैये के बारे में बताया ।।। उसकी पत्नी अपने पति की लाश देखकर रोने लगी, और कहने लगी "मैं गवाही देती हूं मेरा पति बहुत नेक इंसान है"!!!! इस बात पर बादशाह को बड़ा ताज्जुब हुआ कहने लगा "यह कैसे हो सकता है? लोग तो इसकी बुराई कर रहे थे और तो और इसकी लाश को हाथ तक लगाने को भी तैयार ना थे?" उसकी बीवी ने कहा "मुझे भी लोगों से यही उम्मीद थी, दरअसल हकीकत यह है कि मेरा पति हर रोज शहर के शरा

मृत्यु का कोई मुहूर्त नही

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मृत्यु के साथ रिश्ते भी खत्म

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                                                  ; मृत्यु के साथ रिश्ते नाते सब खत्म-----    एक बार देवर्षि नारद अपने शिष्य तुम्बरू के साथ कहीं जा रहे थे । गर्मियों के दिन थे । एक प्याऊ से उन्होंने पानी पिया और पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे । इतने में एक कसाई वहाँ से 25-30 बकरों को लेकर गुजरा । उसमें से एक बकरा एक दुकान पर चढ़कर मोठ खाने लपक पड़ा । उस दुकान पर नाम लिखा था – ‘शगालचंद सेठ।’ दुकानदार का बकरे पर ध्यान जाते ही उसने बकरे के कान पकड़कर दो-चार घूँसे मार दिये । बकरा ‘मै,मै ,मै ’ करने लगा और उसके मुँह में से सारे मोठ गिर पड़े । फिर कसाई को बकरा पकड़ाते हुए कहाः “जब इस बकरे को तू हलाल करेगा तो इसकी मुंडी मेरे को देना क्योंकि यह मेरे मोठ खा गया है । ”देवर्षि नारद ने जरा-सा ध्यान लगाकर देखा और जोर-से हँस पड़े । तुम्बरू पूछने लगाः “गुरुजी ! आप क्यों हँसे ? उस बकरे को जब घूँसे पड़ रहे थे तब तो आप दुःखी हो गये थे, किंतु ध्यान करने के बाद आप हँस पड़े । इसमें क्या रहस्य है ? ”नारद जी ने कहाः “छोड़ो भी…. यह तो सब कर्मों का फल है, छोड़ो । ”“नहीं गुरुजी ! कृपा करके बताइये । इस दुका

भक्त ध्रुव की वास्तविक कथा

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    ;भक्त ध्रुव की वास्तविक कथा-; कैसे 4 साल के भक्त, ध्रुव को भगवान मिले? ध्रुव भक्त और उसकी माता सुनिती को एक दिन का सवा सेर यानि सवा किलोग्राम अन्न खाने को मिलता था । सुनिती ही अपने माता-पिता के पास से ज़िद करके अपनी छोटी बहन सुरिती को माँगकर लाई थी। ध्रुव का पिता उतानपात था। ध्रुव भक्त की मौसी सुरिती यानि उतानपात की छोटी पत्नी ने अपनी बड़ी बहन सुनिती को अलग घर में सज़ा के रूप में छुड़वा रखा था। दिन में केवल सवा सेर अन्न खाने को दिया जाता था। राजा उतानपात को अपनी पत्नी सुनीति से विवाह के कई वर्षों पश्चात् तक कोई संतान प्राप्त नहीं हुई। एक दिन नारद जी ने रानी सुनीति से बताया कि राजा का दूसरा विवाह होगा तो आपको भी संतान प्राप्त होगी और उस नई पत्नी को भी संतान प्राप्त होगी। राजा का वृद्ध अवस्था में दूसरा विवाह हुआ। छोटी पत्नी ने नगर की सीमा पर आकर राजा से वचनबद्ध होकर अपनी शर्त मानने पर विवश किया कि मैं तेरे घर तब चलूंगी, जब तू मेरी बहन को जो आपकी पत्नी है, जाते ही घर से निकालकर दूसरे मकान में रखेगा। उसको सवा सेर अन्न खाने को प्रतिदिन देगा तथा मेरे गर्भ से उत्पन्न पुत्र को

KABIR BANI

शरण पड़े गुरु सभ्भाले बालक जानके भोला रै | कहे कबीर चरण चीत राखो ज्यों सुई में डोरा रै