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Showing posts from March, 2020

दास की परिभाषा‘‘

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‘‘दास की परिभाषा‘‘ एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा कि:-  दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।। सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी न

#बामन_अवतार_का‌_रहस्य

भक्त प्रहलाद का पुत्र बैलोचन हुआ तथा बैलोचन का पुत्रा राजा बली हुआ। राजा बली ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। इन्द्र की गद्दी प्राप्त करने के लिए सौ मन घी एक यज्ञ में खर्च करना होता है जिसमें हवन तथा भण्डारा करना होता है। ऐसी-ऐसी सौ निर्बाध यज्ञ करने के पश्चात् वर्तमान इन्द्र को तख्त (गद्दी) से हटा दिया जाता है और जिसने नई साधना पूरी कर ली, उसको इन्द्र की गद्दी दी जाती है। इन्द्र स्वर्ग लोक का राजा होता है। गद्दी पर विराजमान इन्द्र के लिए शर्त होती है कि यदि उसके शासनकाल में किसी ने निर्बाध सौ अश्वमेघ यज्ञ पूरी कर दी तो गद्दी पर विराजमान इन्द्र को पद से उतारकर नया इन्द्र (स्वर्ग का राजा) नियुक्त किया जाता है। इसलिए पद पर विराजमान इन्द्र (स्वर्ग लोक के राजा) को चिंता लगी रहती है कि कोई उसके पद को प्राप्त न कर ले। इसलिए इन्द्र अपने नौकर-नौकरानी या देवी आदि को भेजकर इन्द्र प्राप्ति के लिए की जा रही यज्ञ को खण्डित करा देता है, परंतु राजा बली की 99 यज्ञ निर्बाध पूर्ण हो गई। इन्द्र उसमें बाधा उत्पन्न नहीं कर पाया। जब सौवीं यज्ञ प्रारम्भ की तो इन्द्र का सिहांसन डोल गया। इन्द्र स्

यजुर्वेद

 यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 25 सन्धिछेदः अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः आप्नोति निविदः। प्रणवैः शस्त्राणाम् रूपम् पयसा सोमः आप्यते।(25) अनुवादः जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूत्र्ति करता है (पदैः) श्लोक के चैथे भागों को अर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति) प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप से प्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों को पूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसा तत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है। भावार्थः- तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाता है। यजुर्

गुरू बिन माला फेरते गुरू बिन देते दान।

कबीर, गुरू बिन माला फेरते गुरू बिन देते दान। गुरू बिन दोनों निष्फल है पूछो वेद पुराण।। तीसरी पहचान तीन प्रकार के मंत्रों (नाम) को तीन बार में उपदेश करेगा जिसका वर्णन कबीर सागर ग्रंथ पृष्ठ नं. 265 बोध सागर में मिलता है व गीता जी के अध्याय नं. 17 श्लोक 23 व सामवेद संख्या नं. 822 में मिलता है। कबीर सागर में अमर मूल बोध सागर पृष्ठ 265 - तब कबीर अस कहेवे लीन्हा, ज्ञानभेद सकल कह दीन्हा।। धर्मदास मैं कहो बिचारी, जिहिते निबहै सब संसारी।। प्रथमहि शिष्य होय जो आई, ता कहैं पान देहु तुम भाई।।1।। जब देखहु तुम दृढ़ता ज्ञाना, ता कहैं कहु शब्द प्रवाना।।2।। शब्द मांहि जब निश्चय आवै, ता कहैं ज्ञान अगाध सुनावै।।3।। दोबारा फिर समझाया है - बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासों कहहू वचन प्रवा।-मझाया है - बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासों कहहू वचन प्रवा सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद। चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“ सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल क

मृत्यु

आतम बोध विचार मृत्यु जब कोई इंसान इस दुनिया से विदा हो जाता है तो उसके कपड़े, उसका बिस्तर, उसके द्वारा इस्तेमाल निकाल दिये जाते है। पर कभी कोई उसके द्वारा कमाया गया धन-दौलत. प्रोपर्टी, उसका घर, उसका पैसा, उसके जवाहरात आदि, इन सबको क्यों नही छोड़ते? बल्कि उन चीजों को तो ढूंढते है, मरे हुए के हाथ, पैर, गले से खोज-खोजकर, खींच-खींचकर निकालकर चुपके से जेब मे डाल लेते है, वसीयत की तो मरने वाले से ज्यादा चिंता करते है। इससे पता चलता है कि आखिर रिश्ता किन चीजों से Special one था। इसलिए पुण्य परोपकार ओर नाम की कमाई करो । इसे कोई ले नही सकता, चुरा नही सकता। ये कमाई तो ऐसी है, जो जाने वाले के साथ ही जाती है। हाड़ जले ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास। कंचन जैसी काया जल गई, कोई न आयो पास। जगत में कैसा नाता रे........ अवश्य देखिए साधना चैनल-7:30 pm