हम पढ़ रहे है पुस्तक "गहरी नजर गीता में"
◆ संत गरीबदास जी को परमेश्वर कबीर जी सतलोक लेकर गए थे।
उनको सतलोक दिखाकर तत्वज्ञान बताकर पृथ्वी पर छोड़ा था। इसी का प्रमाण महाराज गरीबदास साहेब जी
(छुड़ानी, हरियाणा) ने अपनी वाणी में दिया है।
सतग्रन्थ साहिब पृष्ठ नं. 425 पर ।
राम नाम जप कर थीर होई। ऊँ-सोहं मन्त्रा दोई।।
कहा पढो भागवत गीता, मनजीता जिन त्रिभुवन जीता।
मनजीते बिन झूठा ज्ञाना , चार वेद और अठारा पुराना।।
भावार्थ:- राम (ब्रह्म-अल्लाह-रब) का नाम जप कर निश्चल हो जाओ। भ्रमों भटको मत। वह राम का नाम ऊँ-सोहं है इसी से मन जीता जा सकता है। यदि यह सत्यनाम (ऊँ-सोहं) पूर्ण गुरु
से प्राप्त नहीं हुआ चाहे आपको इस पुस्तक के पढ़ने से ज्ञान भी हो जाए कि सत्यनाम यह ‘ऊँ-सोहं‘ है तथा नाम जाप भी करने लग जाएँ तो भी कोई लाभ नहीं है। या नकली गुरु बन कर यह नाम देने लग जाए। वह पाखंडी स्वयं नरक में जाएगा तथा अनुयाईयों को भी डुबोएगा। वतर्मान में सत्यनाम व सारनाम दान करने का केवल मुझ दास (संत रामपाल दास) को आदेश मिला है। एक समय में एक ही तत्वदशीर् संत आता है, जो पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब (कविदेर्व) का कृप्या पात्र होता है। अन्य कोई उपरोक्त नामदान करता है तो उसे नकली जानों।
इसलिए इस सतनाम के जाप से मन जीता जा सकता है। इसके प्राप्त हुए बिना चाहे ब्रह्मा जैसा विद्वान हो वह भी मन के आधीन रहेगा।
फिर सारनाम व सारशब्द पूरा गुरु प्रदान करके पार करेगा।
विशेष वणर्न:-- गरीबदास जी कृत सतग्रन्थ साहिब के पृष्ठ नं. 423 से 427 और 431 से 437 से सहाभार
सौ करोर दे यज्ञ आहूती, तौ जागै नहीं दुनिया सूती।
कमर् काण्ड उरले व्यवहारा, नाम लग्या सो गुरु हमारा।।
शंखौं गुणी मुनी महमंता, कोई न बूझै पदकी संथा।।
शंखौं मौनी मुद्रा धारी, पावत नांही अकल खुमारी।
शंखौं तपी जपी और जोगी, कोईन अमी महारस भोगी।।
शंखौं उध्वर्मुखी आकाशा, पावत नांही पदहि निवासा।
शंखौं करै आचार बिचारा, सोतो जांहि धमर् दरबारा।।
शंखौं बहु विधि भेष बनावै, साक्षी भूत कोई नहीं पावै।
शंखौं जोगी जोग जुगंता, पावत नांही पदकी संथा।।
शंखौं जती सती जरि जांही, सो पावै नहीं पदकी छांही।
शंखौं दानी भुगतै दाना, पावत नांही पद निवार्ना।।
शंख अश्वमेघ खड़ी दरबारा, है कोई हमकूं त्यारन हारा।
शंखौं गंगा और किदारा, परम पदारथ इनसैं न्यारा।।
शंखौं वेद पाठ धुनि होई, उस पदकूं बांचै नहीं काई।
तीरथ शंख नदी बहु भांती, वा पद सेती कोई न राती।।
शंखौं शालिग पूजनहारा, कोई न पावै पद दीदारा।।
गरीब, शालिग पूजि दुनिया मुई, प्रतिमा पानी लाग।
चेतन होय जड पूजहीं, फूटे जिनके भाग।।81।।
शंखौं नेमी नेम करांही, भक्ति भाव बिरलै उर आंही।
उस समथर् का शरणा लैरे, चैदा भुवन कोटि जय जय रे।।
ऊपर की साखियों चैपाईयों में संत गरीबदास जी महाराज जो कबीर साहेब के शिष्य हैं, वे कह रहे हैं कि:-
ज्ञानहीन प्राणी नहीं समझते कि सच्चे नाम व सच्चे (अविनाशी) भगवान (सत साहेब) के भजन व शरण बिना चाहे करोंड़ों यज्ञ करो। संखों विद्वान (गुणी) महंत व ऋषि अपने स्वभाव वश सच्चाई (सत्य साधना) को स्वीकार नहीं करते। अपने मान वश शास्त्रा विधि रहित पूजा (साधना)
करते हैं तथा नरक के भागी होते हैं। गीता जी के अध्याय 16 के श्लोक 23.24 में यही प्रमाण है।
संखों मौनी (मौन धारण करने वाले) तथा पाँचों मुद्रा प्राप्ति (चांचरी-भूचरी, खैंचरी-अगोचरी, ऊनमनी) किए हुए भी काल जाल में ही रहते हैं। शंखांे जप (केवल ऊँ नाम का व ऊँ नमो भागवते वासुदेवाय नमः, ऊँ नमो शिवाय, राधा स्वामी नाम व पाँचों नाम-ओंकार, ज्योति निंरजन, रंरकार,
सोहं, सतनाम जाप या अन्य नाम जो पवित्रा गीता जी व पवित्र वेदों तथा परमेश्वर कबीर साहेब जी की अमृतवाणी व अन्य प्रभु प्राप्त संतों की अमृतवाणी से भिन्न हैं) करने वाले तथा तपस्वी व योगी भी पूर्ण मुक्त नहीं हैं। पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं है। नाना प्रकार के भेष (वस्त्र भिन्न गैरुवे वस्त्रा पहनना,
जटा रखना या पत्थर पूजने वाले, मूंढ मंुडवाना, नाना पंथों के अनुयायी बन जाना) भी व आचार-विचार करने वाले यानि स्वयं कुछ भक्ति के नियम बनाकर नित्य उनका पालन करने वाले तथा कमर्काण्ड करने वाले, शंखों दानी दान करने वाले व गंगा-किदार नाथ गया आदि अड़सठ तीर्थ या चारों धामों की यात्रा करने वाले भी परमात्मा का तत्वज्ञान न होने से ईश्वरीय आनन्द का
लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। पूर्ण मुक्त नहीं हो सकते। श्री गीता जी के अध्याय 11 के श्लोक 48 में
स्पष्ट कहा है कि अजुर्न मेरे इस वास्तविक ब्रह्म (काल-विराट) रूप को कोई न तो पहले देख पाया न ही आगे देख सकेगा। चूंकि मेरा यह रूप (अथार्त् ब्रह्म-काल प्राप्ति) न तो यज्ञों से, न ही तप से, न ही दान से, न ही जप से, न ही वेद पढ़ने से, अथार्त् वेदों में वणिर्त विधि से न ही क्रियाओं से
देखा जा सकता अथार्त् परमात्माक्ष्जो यहाँ तीन लोक व इक्कीस ब्रह्मण्ड का भगवान (काल) हैद्व की प्राप्ति किसी भी साधना से नहीं हो सकती। पवित्रा गीता जी में वणिर्त पूजा (उपासना) विधि से सिद्धियाँ प्राप्ति, चार मुक्ति (जो स्वगर् में रहने की अवधि भिन्न होती है तथा कुछ समय इष्ट देव के
पास उसके लोक में रह कर फिर चैरासी लाख जूनियों में भ्रमणा-भटकणा बनी रहेगी)। जिसमें
काल (ब्रह्म) भगवान कह रहा है कि मेरी शरण में आ जा। तुझे मुक्त कर दूंगा। वह काल (ब्रह्म) भजन के आधार पर कुछ अधिक समय स्वगर् में रख कर फिर नरक में भेज देता है। क्योंकि पवित्रा गीता जी में कहा है कि जैसे कमर् प्राणी करेगा (जैसे का भाव है पुण्य भी तथा पाप भी दोनों भोग्य
हैं) वे उसे भोगने पड़ंेगे। फिर कहा है कि कल्प के अंत में सवर् (ब्रह्मलोक पयार्न्त) लोकों के प्राणी नष्ट हो जाएंगे। उस समय स्वगर् व नरक समाप्त हो जाएंगे, फिर सृष्टि रचूँगा। वे प्राणी फिर
कमार्धार पर जन्मते मरते रहंेगे। विचार करें पाठकजन! पूर्ण मुक्ति कहाँ? श्री गीता जी के अध्याय 9
का श्लोक 7 में प्रमाण है।
इसमें साफ लिखा है कि प्रलय के समय सवर् भूत प्राणी नष्ट हो जाएंगे। फिर अजुर्न कहाँ बचेगा? इसलिए गरीबदास जी महाराज कहते हैं कि उस पूर्ण परमात्मा (समथर्) पूर्ण ब्रह्म (कबीर साहेब) की शरण में जाओ जिसको प्राप्त कर फिर सदा के लिए जन्म-मरण मिट जाएगा। पूर्ण मुक्त
हो जाओगे। इसी का प्रमाण श्री गीता जी में है। अध्याय 18 श्लोक 46, 62,66 और अध्याय 8 के श्लोक 8, 9, 10 और अध्याय 2 का श्लोक 17 में प्रमाण है।
( अब आगे अगले भाग में)
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