दास की परिभाषा‘‘

Image
‘‘दास की परिभाषा‘‘ एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा कि:-  दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।। सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी न

सतनाम का रहस्य’’



 ‘‘सतनाम का रहस्य’’

 (यह निम्नलिखित विवरण सन्त रामपाल दास जी महाराज के सत्संगों से लिया गया है)
 ‘‘प्राण संगली’’ में राग केदार गौड महला-1 पष्ठ 201 (पंजाब यूनिवर्सिटि = पंजाबी भाषा वाली) पर श्री नानक साहेब जी ने कहा:-
पिंड पड़े जीव चाल सी सिर काल कड़के आई।
नानक सचे नाम बिना जमपुर बंधा जाई।।
भावार्थ:- श्री नानक जी कह रहे हैं कि सच्चेनाम (सतनाम) बिन जीव को काल पकड़ लेता है। उसी को यमलोक में डाला जाता है।

 ‘‘प्राण संगली’’ नामक ग्रन्थ श्री नानक साहेब जी के श्री मुख से उच्चारित पवित्र वाणी है। जो महला पहला की अमतवाणी है। इसमें सत्यनाम का स्पष्ट वर्णन है। इस सत्यनाम में दो अखर ओम्-सोहम् हैं। यह भेद कलयुग के 5505 वर्ष बीत जाने तक छुपा कर रखना था। जो कबीर परमेश्वर जी का आदेश था। इसीलिए ‘‘प्राण संगली’’ भाग-1 के प्रथम पष्ठ पर ‘‘आवश्यक सूचना’’ नामक हैडिंग है इसमें उल्लेख है कि श्री नानक साहेब जी ने सिंगलादीप के राजा शिवनाभ से कहा था - ‘‘इह ग्रंथ मेरी देह है, मेरा स्थूल रूप है, प्राणों मेरिओं का संग्रह कह्ये कवच है, जगत - समुंद्र का इह पुल है। इह प्राण-संगली मैं तैनूँ बषशी है, इह अजर वस्तु है, सो तैं ही- जरी है। इह प्राण-संगली अंम्रित प्रवाह है; तेरे ही मुख विषे प्रवेश होई है, होर तिन्न लोकाँ विच इस वस्तू नूँ सम्हालता कोई नहीं ताँते प्राणों विषे प्राण-संगली रखनी’’ श्री
नानक देव जी के इन वचनों से स्पष्ट होता है कि परमेश्वर कबीर देव जी (जिन्दा बाबा) ने श्री नानक साहेब जी को श्री धर्मदास जी की तरह ही इस मूल ज्ञान को तथा दो अक्षर के मूल मंत्र (सत्यनाम=ओम्-सोहम्) को गुप्त रखने की विशेष प्रार्थना की थी। जिस कारणवश से जिन्दा बाबा के वचनों का पालन करते हुए।
श्री नानक साहेब जी ने राजा शिवनाभ से कहा कि यह ‘‘प्राण संगली’’ ग्रंथ मेरा शरीर है। ये मेरे प्राण हैं, इस के अन्दर एक विशेष विवरण है जो किसी के भी हाथ नहीं लगना चाहिए और तेरे अतिरिक्त तीन लोक में मुझे कोई व्यक्ति नजर नहीं आता जो मेरी इस अनमोल अमानत को सुरक्षित रख सके। इस ‘‘प्राण संगली’’ में वह भेद है जो संसार रूपी समुंद्र से पार होने का पुल है।
इससे स्पष्ट है कि ‘‘प्राण संगली’’ में जो सतनाम का विशेष भेद है और इसको काल के दूतों अर्थात् वर्तमान के पंथों के संतों व महंतों से छुपा कर रखना था कि कहीं इन नकली पंथों के संत व महंतों के हाथ यह सतनाम ना लग जाये।
जो सतलोक की महिमा बताते हैं और पांचों नाम (ओंकार, ररंकार, ज्योत निरंजन, सोहम् और सतनाम) काल के देते हैं तथा तीन नाम (सतपुरूख, अकाल मूर्त, शब्द स्वरूपी राम) दान करते हैं। ये काल के चलाये हुए पंथ हैं। क्योंकि जिससे यह राधा स्वामी पंथ प्रारम्भ हुआ है। उसका नाम है श्री शिव दयाल सिंह जी सेठ (आगरा, पन्नी गली वाला) है और इसका कोई गुरु नहीं था। देखें प्रमाण इसी पुस्तक ‘‘धरती पर अवतार’’ के पृष्ठ 26 पर। यदि यह सतनाम दो अखर वाला, इनको पता लग जाता तो ये सभी यही नाम देते लेकिन अधिकारी न होने से इनके द्वारा दिया गया नाम काम नहीं करता और जब परमेश्वर द्वारा भेजा हुआ अपना अंश अवतार धरती पर आता तो ये सभी पंथों के संत-महंत यही नाम देते मिलते जिस कारण से असली और नकली की भिन्नता करना कठिन हो जाता और सभी श्रद्धालु काल के मुख में चले जाते। यह महापरोपकार आदरणीय नानक साहेब जी ने हम कलयुग के जीवों पर किया है और काल को इसकी भिनक भी नहीं लगने दी। श्री गुरु ग्रंथ साहेब जी के अंदर ‘‘प्राण संगली’’ की अमत वाणियों को इसीलिए शामिल नहीं किया गया कि कहीं इस मंत्र (सतनाम=ओम्-सोहम् जो दो अक्षर का है) का ज्ञान काल के संतों-महंतों को न हो जाए। इस रहस्य को बनाए रखने के लिए श्री नानक साहेब जी ने एक अजीबो-गरीब लीला की थी जिसका वर्णन भाई बाले वाली जन्म साखी के अध्याय ‘‘समुन्द्र की साखी’’ में है कि एक बार बाला तथा मरदाना ने प्रार्थना की कि हे गुरुदेव हमें श्री लंका दिखाओ। इस पर श्री नानक साहेब जी ने कहा कि तुम आँखें बंद करो, आँखें बंद करके खोला तो समुन्द्र के किनारे खड़े‌ थे। तब श्री नानक साहेब जी ने कहा कि मेरे पीछे-2 जल के ऊपर चले आओ तथा मुख से ‘‘वाहे गुरु-वाहे गुरु’’ का जाप करते रहो। जब जल के ऊपर चल रहे थे तो श्री नानक साहेब जी सतनाम के दो अक्षर (ओम्-सोहम्) का जाप कर रहे थे।
मरदाने ने सोचा कि गुरु जी ओम्-सोहम् (सतनाम) जपते हुए जा रहे हैं। मरदाना भी ओम्-सोहम् जपने लगा तो जल में डूबने लगा और चिल्लाया। तब श्री नानक साहेब जी ने कहा कि मरदाना गुरु जी की नकल नहीं करनी चाहिए, आज्ञा का पालन करना चाहिए। आज्ञा की अवहेलना करने वाले का यही परिणाम होता है। तूं फिर वही मंत्र जाप कर। मरदाना ने फिर से ‘‘वाहे गुरु-वाहे गुरु’’ कहना शुरू किया तो पुनः जल के ऊपर थल की तरह चलने लगा। इस घटना से पूरे सिख‌ समाज में यह धारण फैल गई कि किसी ने भी ‘‘ओम्-सोहम्’’ का जाप नहीं करना है और यदि जाप किया तो मरदाना जैसा परिणाम होगा। भावार्थ है कि जो गुरुदेव‌जी की आज्ञा की अवहेलना करके ओम्-सोहम् जाप करेगा उसको बहुत हानि होगी। जैसे मरदाना को हुई। इसलिए जिस समय पांचवें गुरु श्री अर्जुनदेव जी ने सब वाणियों को संग्रह करके ग्रंथ का रूप दिया। उस समय प्राण संगली नामक ग्रंथ को सिंगला दीप से ग्रंथ साहेब में शामिल करने के उद्देश्य से मंगवाया। प्राण संगली को पढ़ने से पता चला कि इसमें वही मंत्रा (ओम्-सोहम्) बहुत बार लिखा है। पंजाब युनिवर्सिटी पटियाला के डा. चतर सिंह खानपुरी द्वारा सम्पादित ‘‘प्राण संगली’’ (पंजाबी भाषा में लिखी है) इसकी भूमिका में कहा है कि ‘‘प्राण संगली’’ के कुल 113 अध्याय थे। उनमें से केवल 80 अध्याय ही प्रकाश में आए हैं शेष छोड़ दिए गए हैं। विचारणीय विषय है कि सम्पूर्ण ‘‘प्राण संगली’’ क्यों प्रकाशित नहीं की गई। 
कारण यही था कि इस ग्रंथ में सतनाम तथा सारनाम का भेद था। पंचम गुरु श्री अर्जुन देव जी ने सोचा कि यदि प्राण संगली को गुरु ग्रंथ साहेब में शामिल कर लिया गया तो कही सिख समाज इस मंत्र (ओम्-सोहम् जो सतनाम है) का भी जाप न करने लग जाए और श्री गुरु नानक साहेब जी की आज्ञा का उल्लंघन ना हो जाए। इस बात को मद्दे नजर रखते हुए इन वाणियों को गुरु ग्रंथ साहेब में शामिल नहीं किया गया और अभी तक यह ग्रंथ लुप्त प्राय ही रहा तथा सतनाम का रहस्य बना रहा और नकली संतों महंतों को जो काल के दूत हैं उनको यह पता ही नहीं लगा कि वह ‘‘सतनाम’’ वस्तु क्या है। इसका प्रमाण देखें फोटो कापी पुस्तक ‘‘सारवचन राधा स्वामी वार्तिक’’ जिसके प्रकाशक है:- जगदीश चन्द्र सेठी, सेक्रेटरी, राधास्वामी सत्संग ब्यास, डेरा बाबा जैमल सिंह, पंजाब, तथा मुद्रक:- लक्ष्मी आफसेट प्रिन्टर्स, दिल्ली, के उन पष्ठों की जिसमें राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक श्री शिव दयाल जी के सत्संग वचनों का संग्रह है। जिसमें सतनाम की परिभाषा बताई गई है जो कोरी उआ-बाई है। जो इस प्रकार है इस पुस्तक के पृष्ठ 13 दफा 1 में लिखा है कि ‘‘बस काम इतना है कि इंसान आपनी रूह को इसके खजाने और निकास यानि मुकाम सतनाम और राधास्वामी में पहुँचावे’’ फिर पष्ठ 14 दफा 3 में कहा है कि ‘‘सिर्फ संत मंजिल पांचवी यानि सतनाम पर और कोई बिरले संत मंजिल आठवीं यानि राधास्वामी पद तक पहुँचे’’ यहां दोनों पष्ठों 13 व 14 अर्थात् दफा 1 तथा 2 में श्री शिवदयाल जी ने (राधा स्वामी पंथ के प्रवर्तक ने) सिद्ध कर दिया कि सतनाम को स्थान कहते हैं। फिर पष्ठ 15 पर दफा नं. 4 में सतनाम को इस प्रकार परिभाषित किया है:- ‘‘अब समझना चाहिए कि राधास्वामी पद सबसे ऊँचा मुकाम है और यही नाम कुल मालिक और सच्चे साहिब और सच्चे खुदा का है और इस मुकाम से दो स्थान नीचे सतनाम का मुकाम है कि जिसको सन्तों ने सतलोक और सच्चखण्ड और सार शब्द और सत शब्द और सतनाम और सतपुरूष करके बयान किया है। इससे मालूम होगा कि यह दो स्थान विश्राम सन्त और परम सन्त के हैं और सन्तों का दर्जा इसी सबब से सबसे ऊँचा है। इन स्थानों पर माया नहीं है और मन भी नहीं है और यह स्थान कुल नीचे के स्थानों पर माया नहीं है और मन भी नहीं है और यह स्थान कुल नीचे के स्थानों और तमाम रचना के मुहीत हैं यानि सब रचना इसके नीचे और इसके घेर में है।
राधास्वामी पद को अकह और अनाम भी कहते हैं, क्योंकि यही पद अपार और अनन्त और अनादि है और बाकी के सब मुकाम इसी से प्रकट यानि पैदा हुए और सच्चा ला-मकान जिसको स्थान भी नहीं कह सकते, इसी को कहते हैं।’’
यह उपरोक्त व्याख्या श्री शिवदयाल जी राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक की है‌ जिससे पता चलता है कि इस महाशय को सतनाम का क ख का भी ज्ञान नहीं था अर्थात् यह पूर्ण रूप से अज्ञानी था और यह गुरु ग्रंथ साहेब जी को पढ़ा करता था और इसका कोई गुरु भी नहीं था और यह काल भगवान (ज्योति निरंजन) से प्रेरित तथा उसी का भेजा हुआ दूत था। यदि इसको इस दो अक्षर के नाम अर्थात् सतनाम (ओम्-सोहम्) का पता लग जाता तो यह सारा समुदाय यही दो अक्षर के नाम सतनाम का जाप कर रहा होता और इससे प्राप्त नाम सतनाम से किसी को भी कोई लाभ नहीं होना था, क्योंकि यह अधिकारी नहीं था। क्योंकि इसका स्वयं कोई गुरु नहीं था।

कबीर साहेब जी कहते हैं:-
कबीर गुरु बिन माला फेरते गुरु बिन देते दान,
गुरु बिन दोनों निष्फल हैं,चाहे पूछो वेद पुराण।।

श्री नानक साहेब जी ने भी श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के पष्ठ 946 पर स्पष्ट किया है कि:-
बिन सतगुरु सेवे जोग न होई। बिन सतगुरु भेटे मुक्ति न होई।
बिन सतगुरु भेटे नाम पाइआ न जाई। बिन सतगुरु भेटे महा दुःख पाई।
बिन सतगुरु भेटे महा गरबि गुबारि। नानक बिन गुरु मुआ जन्म हारि।
इस अमर संदेश में श्री नानक जी ने स्पष्ट किया है कि बिना वक्त गुरु की शरण में जाए न तो मोक्ष होगा और न ही जीव का अहंकार नाश होगा। जो जीव को परमात्मा से दूर रखता है। सतगुरु के सेवे अर्थात् शरण में जाए बिना जोग अर्थात् साधना भी सफल नहीं हो सकती। गुरु जी की शरण बिना नाम नहीं मिल सकता और नाम बिना मुक्ति नहीं हो सकती। झूठे गुरु से भी कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। बिना सतगुरु के महादुःख होगा तथा बिना गुरु की शरण ग्रहण किए जुऐ में हारे हुए जुआरी की इस मानव जन्म को हार कर मर जाएगा। श्री गुरु नानक देव जी सख्ती के साथ कह रहे हैं कि पूरे गुरु की शरण प्राप्त करके जन्म सफल करो। यह मानव जीवन अनमोल है बार-2 प्राप्त नहीं होगा। 

कृप्या प्रमाण के लिए पढ़ें निम्न वाणी:-
श्री गुरु ग्रंथ साहेब जी पष्ठ 1342 (गुरु महिमा) प्रभाती असटपदीआ महला 1 बिभास सतिगुरु पूछि सहज घरू पावै।।3।। रागि नादि मनु दूजै भाइ।। अंतरि कपटु महा दुखु पाइ।। सतिगुरु भेटै सोझी पाइ।। सचै नामि रहै लिव लाइ।।4।। सचै सबदि सचु कमावै।। सची बाणी हरि गुण गावै ।। निज घरि वासु अमर पदु पावै।। ता दरि साचै सोभा पावै।।5।। गुर सेवा बिनु भगति न होई ।। अनेक जतन करै जे कोई।।
जैसा कि कबीर परमेश्वर जी ने तथा श्री नानक साहेब जी ने कहा है कि जो व्यक्ति बिना गुरु के साधना करता है। उसको कोई अध्यात्मिक लाभ नहीं हो सकता चाहे कितना ही यत्न करे। इसी के परिणामस्वरूप श्री शिवदयाल जी (राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक) अधोगति को प्राप्त हुए। क्योंकि सतनाम जो दो अक्षर का है। उसको पूरे संत से अर्थात् अधिकारी से प्राप्त करके साधना करने से मोक्ष प्राप्ति होती है। इस सतनाम के देने वाले अधिकारी संत की खोज श्री शिवदयाल जी ने नहीं की तथा स्वयंभू गुरु बनकर औरों को दीक्षा देने लगा। जिस कारण से प्रेत योनि को प्राप्त होकर अपनी शिष्या बुक्की में प्रवेश हुआ और फिर उसी तरह हुक्का पीने लगा तथा बुक्की के माध्यम से ही खाना खाने लगा। मोक्ष प्राप्त प्राणी के यह लक्षण नहीं होते। जब इस राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक की ही ये दुर्दशा हुई है तो सहज में समझ लेना चाहिए कि अनुयाइयों का क्या होगा। वही दशा होगी जो श्री शिवदयाल जी की हुई।
प्रमाण के लिए कृप्या देखें फोटो कापी जीवन चरित्र स्वामी जी महाराज अर्थात् शिव दयाल जी का जीवन चरित्र। इसी पुस्तक ‘‘धरती पर अवतार’’ के पष्ठ 26 से 27 पर।
श्री शिव दयाल जी के वचनों के आधार से श्री सावन सिंह जी ने ‘‘संतमत प्रकाश’’ पुस्तक को कई भागों में लिखा है। उसमें भी सतनाम के विषय में जानकारी दी गई जो कोरा अज्ञान भरा है। जो इस प्रकार है:- श्री खेमामल जी के गुरु श्री सावन सिंह जी ने संतमत प्रकाश भाग-3 के पष्ठ 102 पर कहा है कि ‘‘सतनाम या सचखण्ड यह तीसरा लोक है’’ फिर पष्ठ 107 पर चार रामों का वर्णन करते हुए कहा है कि ‘‘सतनाम चैथा राम है। यह असली राम है’’ फिर संतमत प्रकाश भाग-4 पृष्ठ 262 पर कहा है कि ‘‘सतनाम हमारी जाति है’’ पूर्वोक्त वर्णन श्री शिवदयाल सिंह जी (एक राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक) के सत्संगों का संग्रह है तथा उपरोक्त वर्णन श्री सावन सिंह जी (बाबा जैमल सिंह के शिष्य डेरा ब्यास) के सत्संगों का संग्रह है। जिनको सतनाम का ही पता नहीं कि वास्तव में यह क्या वस्तु‌ है। ये सतनाम (दो अक्षर=ओम्-सोहम्) के जाप की साधना न करके काल के पांचों नामों का जाप करते रहे, जिनके विषय में श्री तुलसी साहेब जी हाथरस वाले ने अपने द्वारा रचित पुस्तक घट रामायण भाग-2 के पष्ठ 27 पर लिखा है कि ‘‘पांचों नाम काल के जानों’’ (ररंकार, ओंकार, ज्योति निरंजन, सोहं तथा सतनाम) इन से अन्य हट कर छटवां नाम ‘‘सतनाम’’ तथा अन्य ‘‘आदिनाम’’ के विषय में कहा‌ है कि इन (सतनाम तथा आदि नाम=सारनाम) से मोक्ष होगा। ये नाम इन पंथों (राधास्वामी पंथ, सच्चा सौदा सिरसा वाले पंथ) के पास नहीं हैं। इसलिए इनका मोक्ष नहीं हो सकता। क्योंकि पांच नामों का जाप करने वाले श्री शिवदयाल जी
(राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक) की महादुर्दशा हुई। वह स्वयं प्रेत बनकर अपनी शिष्या बुक्की में प्रवेश होकर समय व्यतीत किया करता था और बुक्की में प्रवेश करके हुक्का पीता था, खाना खाता था तथा संगत की शंकाओं का समाधान करता था। देखें प्रमाण फोटो कापी जीवन चरित्रा स्वामी जी महाराज की इसी पुस्तक ‘‘धरती पर अवतार’’ के पष्ठ 26 से 27 पर। तो अन्य अनुयाइयों की भी यही दशा होगी।
श्री सावन सिंह के शिष्य श्री खेमामल जी (शाह मस्ताना जी) थे। श्री सावन‌ सिंह जी से ही उपदेश प्राप्त करके श्री खेमामल जी (शाह मस्ताना जी) ने सच्चा सौदा सिरसा में डेरे की स्थापना की है तथा मनमुखी तीन नाम (अकाल मूर्त, शब्द स्वरूपी राम, सतपुरूख) का जाप संगत को दान करने लगा। जो कि किसी भी संत की वाणी में प्रमाण नहीं है। जिनकोे परमात्मा पाया हो तथा न ही किसी सद्शास्त्र में इन तीन नामों का प्रमाण है। इसी के परिणाम स्वरूप श्री खेमामल जी इन्जैक्शन रियेक्शन से मत्यु को प्राप्त हुए। (प्रमाण:- पुस्तक ‘‘सतगुरु के परमार्थी करिश्मों का वतान्त पृष्ठ 31 पर जिसके प्रकाशक=इन्द्रसैन प्रबन्धक डेरा सच्चा सौदा सिरसा, हरियाणा) ये सभी काल के दूत थे। यदि इनमें से किसी को भी सतनाम का पता लग जाता तो ये इसी मंत्रा का जाप अपनी संगत को दे जाते तथा जब भक्तियुग आता अर्थात् पूर्ण परमात्मा का अवतारी संत आता तो नकली और असली पंथ में भिन्नता करना कठिन हो जाता। इसलिए परमेश्वर कबीर जी के आदेशानुसार श्री नानक साहेब जी ने मरदाना को यह दो अक्षर (ओम्-सोहम्) का जाप न करने की आज्ञा दी थी और स्वयं उच्चारण करके वह दो अक्षर का‌ नाम उजागर भी कर दिया था ताकि प्रमाण रहे कि नानक साहेब जी यही सतनाम (ओम्-सोहम्) जाप करके मोक्ष को प्राप्त हुए और इसी से आगे मोक्ष होगा अन्य किसी मंत्र से नहीं हो सकता। वाहे गुरु-वाहे गुरु जपने को इसलिए कहा गया था कि यह नाम पूर्ण परमात्मा कबीर जी की महिमा का बोधक है। जैसे संत गरीबदास जी महाराज (गांव छुड़ानी, जिला झज्जर, हरियाणा) ने अपनी अमर वाणी में कहा कि:-झांखी वेख कबीर की नानक कीति वाह, वाह सिखों के गल पड़ी कौन छुड़ावै ता।

भावार्थ है कि श्री नानक साहेब जी को परमेश्वर कबीर साहेब जी जिन्दा बाबा के वेश में सुलतानपुर शहर के पास बेई नदी पर मिले थे और उनको अपने साथ सच्चखण्ड (सतलोक) लेकर गये थे। सतलोक के अंदर परमेश्वर रूप में जिन्दा बाबा को देखकर श्री नानक साहेब जी ने परमेश्वर की महिमा को सांकेतिक शब्दों में वर्णन करते हुए कहा है वाहे गुरु-वाहे गुरु। इसका भावार्थ है कि धन्य है यह परमेश्वर कबीर जी जो मुझे बेई नदी पर मिले और सतनाम जो दो अक्षर (ओम्-सोहम्) का है वह प्रदान किया जिससे मोक्ष सम्भव है। इसलिए इस ‘‘वाहे गुरु’’ शब्द के बोलने से प्रभु की महिमा अर्थात् स्तुति का लाभ प्राप्त होता है।
जिससे सांसारिक सुख तो प्राप्त हो जाते हैं परन्तु मोक्ष नहीं और न ही किसी संकट का निवारण होता है। इस मंत्र का पूरे गुरु से (जो श्री नानक साहेब जी जैसा हो) नाम लेकर जाप करने से मानव शरीर भी प्राप्त हो सकता है परन्तु मोक्ष नहीं।
परमेश्वर कबीर जी के आदेशानुसार श्री नानक साहेब जी ने सतनाम के दो अक्षर (ओम्-सोहम्) का जाप न देकर के ‘‘वाहे गुरु’’ जाप करने का आदेश दिया। 
इस विचार से कि जब तक कलयुग 5505 वर्ष बीतेगा उस समय सतनाम के दो अक्षर (ओम्-सोहम्) का जाप देने का समय आयेगा। तब तक इस ‘‘वाहे गुरु’’ मंत्र के जाप से इन पुण्यात्माओं को पुनः मनुष्य जन्म मिलते रहेगें। जब यह कलयुग के 5505 वर्ष बीत जाने पर मोक्ष समय आयेगा। तब अपना अवतार धरती पर परमेश्वर कबीर जी भेजेंगे। उससे वास्तविक मंत्रा (ओम्-सोहम्) प्राप्त करके सभी शरणागत् जीवात्माऐं सतलोक चले जायेंगी। वह अवतार संत रामपाल दास जी महाराज हैं। जिनको परमेश्वर कबीर जी ने सन् 1997 में जब कलयुग 5505 वर्ष पूरा हुआ तब सतनाम (ओम-सोहम्) का नाम दान करने का सही समय बताया तथा सारनाम (आदि नाम) को सार्वजनिक करने तथा दान करने का आदेश दिया। क्योंकि उस समय तक सभी काल के दूतों द्वारा चलाऐं गये पंथों के संतों व महंतों द्वारा बताई गई मोक्ष विधि जो शास्त्राविरूद्ध है। सबको बता चुके होगें और फिर वह परमेश्वर का भेजा हुआ अवतार सद्ग्रन्थों तथा परमात्मा प्राप्त महापुरूषों की वाणी से सिद्ध करेगा कि कौन सी साधना सत्य है तथा कौन सी असत्य है। 
इस तुलनात्मक तरीके से सभी पहचान जायेंगे कि धरती पर अवतार (संत रामपाल दास जी महाराज) अवतरित हो चुके हैं श्रद्धालु भक्त उन नकली पंथों के महंतों संतों को त्यागकर वास्तविक मंत्रा सतनाम (ओम्-सोहम्) तथा आदि नाम (सारनाम) प्राप्त करके अपना कल्याण करवायेंगे।
प्राण संगली के पष्ठ ‘‘आवश्यक सूचना’’ पर यह भी लिखा है कि:- इस वचन से स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ प्राणों का संग्रह रूप है। जिसमें प्राणपिंड का निर्णय और प्राणों से मन के निरोध का पूरा भेद लिखा है। संभव है कि इसको ‘‘गुरु ग्रंथ साहेब’’ जिल्द में शामिल न करने की वजह यही हो कि गुरु अर्जुनदेव जी ने समयानुसार इसे हर एक छोटे-बड़े की दष्टि में लाना उचित न समझा।
इस दुर्लभ ग्रन्थ के छापने का हमारा कदापि साहस न होता यदि संत संपूरण सिंह सरीखे तरनतारन के नानक-पंथी महात्मा जिनकी गहरी जानकारी और अनुभव विचार का उनकी टिप्पणी प्रत्यक्ष प्रमाण है इस कारण को अपने जिम्मे न लेते।
विवेचन:- जैसा कि इस उपरोक्त उल्लेख में अनुवादकर्ता ने स्पष्ट किया है कि प्राण संगली को गुरु ग्रंथ साहेब में शामिल न करने की यही वजह रही होगी कि श्री गुरु अर्जुन देव जी ने समय अनुसार इसे हर एक छोटे-बड़े की दष्टि में लाना उचित न समझा। श्री गुरु ग्रंथ साहेब में प्राण संगली को शामिल न करने तथा श्री नानक साहेब जी ने इस ग्रंथ का नाम प्राण संगली क्यों रखा इसके कारण की वास्तविकता को तो वही बता सकता है जिसकी गति उनकी सी हो अर्थात् जो श्री नानक साहेब जी जैसा परमात्मा का अवतार हो। इसी संदर्भ में भाई बाले वाली जन्म साखी पष्ठ 272,273 पंजाबी वाली में प्रहलाद भक्त ने कहा है कि मरदाना यहां पर पहले (परमेश्वर) कबीर जी आए थे तथा अब श्री नानक साहेब जी तथा एक और आयेगा जो जाट जाति में पंजाब की धरती पर जन्म लेगा तथा इन्हीं जैसा होगा अर्थात् धरती पर अवतार होगा।
उपरोक्त जानकारी संत रामपाल जी महाराज ने स्पष्ट की है कि किस कारण से प्राण संगली को श्री गुरु ग्रंथ साहेब में शामिल नहीं किया गया।

•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry

Comments

Popular posts from this blog

राकेश झुनझुनवाला, जानिए कितना बड़ा है बिग बुल का परिवार, कौन था उनके लिए सबसे जरूरी

चमत्कार !!! #चमत्कार !!! #चमत्कार !!!

संत गरीबदास जी द्वारा श्राद्ध भ्रम खण्डन’’