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Showing posts from December, 2021

दास की परिभाषा‘‘

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‘‘दास की परिभाषा‘‘ एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा कि:-  दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।। सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी न

हिन्दू समाज के पतन के मुख्य कारण ।।

हिन्दू समाज के पतन के मुख्य कारण ।। 1. वैदिक धर्म की मान्यताओं में अविश्वास एवं  मत-मतान्तर, भिन्न भिन्न सम्प्रदाय, पंथ, गुरु आदि के नाम से वेद विरुद्ध मत आदि में विश्वास रखना। इस विभाजन से हिन्दू समाज की एकता छिन्न-भिन्न हो गई एवं वह विदेशी हमलावरों का आसानी से शिकार बन गया।  2. वेदों में वर्णित एक ईश्वर को छोड़कर उनके स्थान पर अपने से कल्पित कब्रों, पीरों, भूत-प्रेत, मजारों आदि पर से पटकना। धर्म की हानि से धार्मिक एकता का ह्रास हो गया जिसके चलते विदेशियों के गुलाम बने।  3. वेद विदित सत्य, संयम, सदाचार और धर्म आचरण को छोड़कर पाखंडी गुरुओं के चरण धोने से, निर्मल बाबा के गोलगप्पों से,राधे माँ की चमकीली पोशाकों से मोक्ष होने जैसे अन्धविश्वास को मानना। आध्यात्मिक उन्नति का ह्रास होने से हिन्दू समाज की स्थिति बदतर हो गई।  4. वेद विदित संगठन सूक्त एवं मित्रता की भावना का त्यागकर स्वार्थी हो जाने से। स्वयं के गुण, कर्म और स्वभाव को उच्च बनाने के स्थान पर दूसरे की परनिंदा, आलोचना, विरोध आदि में अपनी शक्ति व्यय करना। हिन्दू समाज में एकता की कमी का यह भी एक बड़ा कारण था. 5. जातिवाद, छुआछूत, अस्पृश

#धरती_पर_अवतार_Part1

#धरती_पर_अवतार_Part1 ‘‘दो शब्द’’ मानवता के पूर्ण विकास का कार्य अनादि काल से भारत ही करता आया है। इसी पुण्यभूमि पर अवतारों का अवतरण अनादि काल से होता आ रहा है। लेकिन कैसी विडम्बना है कि ऋषि-मुनियों महापुरूषों व अवतारों के जीवन काल में उस समय की शासन व्यवस्था व जनता ने उनकी दिव्य बातों व आदर्शों पर ध्यान नहीं दिया और उनके अन्तध्र्यान होने पर दुगने उत्साह से उनकी पूजा शुरू कर पूजने लग गये। यह भी एक विडम्बना ही है कि हम जीवंत और समय रहते उनकी नहीं मानते अपितु उनका विरोध व अपमान ही करते रहे हैं तथा कुछ स्वार्थी तत्व जनता को भ्रमित करके परम सन्त को बदनाम करके सत् भक्ति में बाधक बनते हैं। यह उक्ति प्रत्येक युग में चरितार्थ होती आई है, और आज भी हो रही है। जो महापुरूष हजारों कष्टों को सहन करके अपनी तपस्या व सत्य पर अडिग रहता है, उनकी बात असत्य नहीं हो सकती। सत्य पर अडिग रहते हुए ईसा मसीह जी ने अपने शरीर में कीलों की भयंकर पीड़ा को झेला, संत गरीबदास जी महाराज, परमेश्वर कबीर साहेब जी, श्री नानक साहेब जी तथा श्री राम व श्री कष्ण जी को भी यातनाओं का शिकार होना पड़ा। वर्तमान में उसी श्रंखला में सन्त

आदरणीय गरीबदास साहेब जी की अमृतवाणी में सृष्टी रचना का प्रमाण

 आदरणीय गरीबदास साहेब जी की अमृतवाणी में सृष्टी रचना का प्रमाण आदि रमैणी (सद् ग्रन्थ पृष्ठ नं. 690 से 692 तक) आदि रमैंणी अदली सारा। जा दिन होते धुंधुंकारा।।1।। सतपुरुष कीन्हा प्रकाशा। हम होते तखत कबीर खवासा ।।2।। मन मोहिनी सिरजी माया। सतपुरुष एक ख्याल बनाया।।3।। धर्मराय सिरजे दरबानी। चैसठ जुगतप सेवा ठांनी।।4।। पुरुष पृथिवी जाकूं दीन्ही। राज करो देवा आधीनी।।5।। ब्रह्मण्ड इकीस राज तुम्ह दीन्हा। मन की इच्छा सब जुग लीन्हा।।6।। माया मूल रूप एक छाजा। मोहि लिये जिनहूँ धर्मराजा।।7।। धर्म का मन चंचल चित धार्या। मन माया का रूप बिचारा।।8।। चंचल चेरी चपल चिरागा। या के परसे सरबस जागा।।9।। धर्मराय कीया मन का भागी। विषय वासना संग से जागी।।10।। आदि पुरुष अदली अनरागी। धर्मराय दिया दिल सें त्यागी।।11।। पुरुष लोक सें दीया ढहाही। अगम दीप चलि आये भाई।।12।। सहज दास जिस दीप रहंता। कारण कौंन कौंन कुल पंथा।।13।। धर्मराय बोले दरबानी। सुनो सहज दास ब्रह्मज्ञानी।।14।। चैसठ जुग हम सेवा कीन्ही। पुरुष पृथिवी हम कूं दीन्ही।।15।। चंचल रूप भया मन बौरा। मनमोहिनी ठगिया भौंरा।।16।। सतपुरुष के ना मन भाये। पुरुष लोक से हम चल