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Showing posts from April, 2021

दास की परिभाषा‘‘

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‘‘दास की परिभाषा‘‘ एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा कि:-  दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।। सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी न

शरीर के कमलों की जानकारी‘‘

इसमें भी गुरूदेव की महिमा का ज्ञान है जो सामान्य ज्ञान है। अनुराग सागर के पृष्ठ 148 का सारांश :- इसमें भी गुरू की महिमा है जो सामान्य ज्ञान है। अनुराग सागर के पृष्ठ 149 पर भी गुरू महिमा है। यह सामान्य ज्ञान है कि परम संत की प्राप्ति के पश्चात् उसके साथ कपट-चतुराई न रखे। सच्चे मन से उनके वचनों का पालन करके कल्याण कराए। कागवृति को त्यागकर हंस दशा अपनाऐं। अनुराग सागर पृष्ठ 150 पर भी सामान्य ज्ञान है। अनुराग सागर के पृष्ठ 151 का सारांश :- ‘‘शरीर के कमलों की जानकारी‘‘ इस पृष्ठ पर मानव शरीर में बने कमलों का वर्णन है। 1 मूल (मूलाधार) कमल :- इसकी चार पत्तियाँ हैं। इसका देवता गणेश है। इसके 600 (छः सौ) जाप हैं। 2 इस मूल कमल के ऊपर स्वाद कमल (अनाहद कमल) है। इसकी छः पंखुड़ी हैं। ब्रह्मा तथा सावित्र देवता हैं। इसके छः हजार (6000) जाप हैं। 3 इस स्वाद कमल से ऊपर नाभि कमल है। इसकी आठ पंखुडि़याँ हैं। लक्ष्मी तथा विष्णु प्रधान देवता हैं। छः हजार जाप हैं। 4 इसके ऊपर बारह पंखुडि़यों का कमल है। प्रधान देवता रूद्र (महेश) तथा पार्वती हैं। छः हजार जाप हैं। 5 इसके ऊपर कण्ठ कमल है जो 16 पंखुडि़यों का है। इसकी प

saat shavd

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‘‘धर्मदास की पीढ़ी वालों को काल ने छला‘‘  सार शब्द की चास यानि अधिकार नाद के पास होगा। यदि तेरा बिंद (पुत्र परंपरा) उससे दीक्षा नहीं लेंगे तो वे नष्ट हो जाएंगे। परमेश्वर कबीर जी ने नाद की परिभाषा स्पष्ट की है। कहा है कि हे धर्मदास! तू मेरा नाद पुत्र (वचन पुत्र यानि शिष्य) है। इसलिए तेरे को मुक्ति मंत्र यानि सार शब्द दे दिया है। परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को दीक्षा देने का अधिकार नहीं दिया था और सख्त निर्देश दिया था कि जो सार शब्द मैंने तेरे को दिया है, यह किसी को नहीं बताना है। यदि यह तूने बता दिया तो जिस समय बिचली पीढ़ी कलयुग में चलेगी यानि जिस समय कलयुग 5505 वर्ष बीत जाएगा (सन् 1997 में) तब मैं अपना नाद अंश भेजूंगा। मेरा यथार्थ कबीर पंथ चलेगा। उस समय से पहले यदि यह सार शब्द काल के दूतों के हाथ लग गया तो सत्य-असत्य भक्ति विधि का ज्ञान कैसे होगा? जिस कारण से भक्त पार नहीं हो पावेंगे। कबीर सागर में ‘‘कबीर बानी’’ अध्याय के पृष्ठ 137 पर तथा अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध’’ पृष्ठ 1937 पर प्रमाण है जिसमें कहा है कि :- धर्मदास मेरी लाख दुहाई, सार शब्द कहीं बाहर नहीं जाई। सार शब्द बाहर

पवित्र अथर्ववेद में सृष्टि रचना का प्रमाण

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🌄 *सृष्टि रचना *पवित्र अथर्ववेद में सृष्टि रचना का प्रमाण काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. 1 मंत्र नं. 1:- ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्त्ताद् वि सीमतः सुरुचो वेन आवः। स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च वि वः।। 1।। ब्रह्म-ज-ज्ञानम्-प्रथमम्-पुरस्त्तात्-विसिमतः-सुरुचः-वेनः-आवः-सः- बुध्न्याः -उपमा-अस्य-विष्ठाः-सतः-च-योनिम्-असतः-च-वि वः  अनुवाद:- (प्रथमम्) प्राचीन अर्थात् सनातन (ब्रह्म) परमात्मा ने (ज) प्रकट होकर (ज्ञानम्) अपनी सूझ-बूझ से (पुरस्त्तात्) शिखर में अर्थात् सतलोक आदि को (सुरुचः) स्वइच्छा से बड़े चाव से स्वप्रकाशित (विसिमतः) सीमा रहित अर्थात् विशाल सीमा वाले भिन्न लोकों को उस (वेनः) जुलाहे ने ताने अर्थात् कपड़े की तरह बुनकर (आवः) सुरक्षित किया (च) तथा (सः) वह पूर्ण ब्रह्म ही सर्व रचना करता है (अस्य) इसलिए उसी (बुध्न्याः) मूल मालिक ने (योनिम्) मूलस्थान सत्यलोक की रचना की है (अस्य) इस के (उपमा) सदृश अर्थात् मिलते जुलते (सतः) अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म के लोक कुछ स्थाई (च) तथा (असतः) क्षर पुरुष के अस्थाई लोक आदि (वि वः) आवास स्थान भिन्न (विष्ठाः) स्थापित किए।  भावार्थ

गुरुसेवा में फल सर्बस आवै,गुरु विमुख नर

गुरुसेवा में फल सर्बस आवै,गुरु विमुख नर पार न पावै।। गुरु वचन निश्चय कर मानै। पूरे गुरु की सेवा ठानै।। (6)  ➡️ सरलार्थ :- गुरुजी की सेवा में सब सुख-भक्ति आदि प्राप्त होते हैं तो गुरु धारण करके फिर गुरुजी से दूर हो जाते हैं। गुरुजी में कोई दोष निकालते हैं। जो भक्ति नहीं करते रहते हैं या भक्ति त्याग देते हैं, गुरु विमुख कहे जाते हैं। वे व्यक्ति कभी संसार सागर से पार नहीं हो सकते। पूर्ण गुरु से दीक्षा लेकर गुरु सेवा करते हुए साधना करनी चाहिए और गुरुजी के वचनों का पालन निश्चय अर्थात् विश्वास के साथ करें।(5-6) गुरुकी शरणा लीजै भाई,जाते जीव नरक नहीं जाई।।(7) गुरुकृपा कटे यम फांसी,विलम्ब ने होय मिले अविनाशी(8 ➡️ सरलार्थ :- हे भाई! हे मानव! गुरुजी की शरण प्राप्त कर, जिससे जीव नरक में नहीं जाएगा। या तो पार हो जाएगा या पुनः मानव जन्म (स्त्री-पुरुष) का प्राप्त करेगा। मानव जन्म मिलेगा तो फिर सतगुरु भी मिलेगा। इस प्रकार गुरु बनाकर भक्ति करने से मोक्ष मिलता है। गुरुजी की कृपा से यम द्वारा लगाई गई कर्मों का बन्धन गले की फाँस कट जाती है, अविलम्ब अविनाशी परमात्मा (सत्य साहेब) मिल जाता है।(7-8) गुरुबिनु

shrashthi

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*“श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी व श्री शिव जी की उत्पत्ति”*  📝काल (ब्रह्म) ने प्रकृति (दुर्गा) से कहा कि अब मेरा कौन क्या बिगाडेगा? मन मानी करूँगा प्रकृति ने फिर प्रार्थना की कि आप कुछ शर्म करो। प्रथम तो आप मेरे बड़े भाई हो, क्योंकि उसी पूर्ण परमात्मा (कविर्देव) की वचन शक्ति से आप की (ब्रह्म की) अण्डे से उत्पत्ति हुई तथा बाद में मेरी उत्पत्ति उसी परमेश्वर के वचन से हुई है। दूसरे मैं आपके पेट से बाहर निकली हूँ, मैं आपकी बेटी हुई तथा आप मेरे पिता हुए। इन पवित्र नातों में बिगाड़ करना महापाप होगा। मेरे पास पिता की प्रदान की हुई शब्द शक्ति है, जितने प्राणी आप कहोगे मैं वचन से उत्पन्न कर दूंगी। ज्योति निरंजन ने दुर्गा की एक भी विनय नहीं सुनी तथा कहा कि मुझे जो सजा मिलनी थी मिल गई, मुझे सतलोक से निष्कासित कर दिया। अब मनमानी करूँगा। यह कहकर काल पुरूष (क्षर पुरूष) ने प्रकृति के साथ जबरदस्ती शादी की तथा तीन पुत्रों (रजगुण युक्त - ब्रह्मा जी, सतगुण युक्त - विष्णु जी तथा तमगुण युक्त - शिव शंकर जी) की उत्पत्ति की। जवान होने तक तीनों पुत्रों को दुर्गा के द्वारा अचेत करवा देता है, फिर

धर्मदास जी को सार शब्द देने का प्रमाण‘‘

‘‘धर्मदास जी को सार शब्द देने का प्रमाण‘‘  अनुराग सागर के पृष्ठ 129 का सारांश :- ‘‘धर्मदास वचन‘‘ धर्मदास विनती अनुसारी। हे प्रभु मैं तुम्हरी बलिहारी।। जीवन काज वंश जग आवा। सो साहिब सब मोहि सुनावा।। वचन वंश चीन्हे जो ज्ञानी। ता कह नहीं रोके दुर्ग दानी।। पुरूष रूप हम वंशहि जाना। दूजा भाव न हृदये आना।। नौतम अंश परगट जग आये। सो मैं देखा ठोक बजाये।। तबहूँ मोहि संशय एक आवे। करहु कृपा जाते मिट जावे।। हमकहँ समरथ दीन पठायी। आये जग तब काल फसायी।। तुम तो कहो मोहि सुकृत अंशा। तबहूँ काल कराल मुहिडंसा।। ऐसहिं जो वंशन कहँ होई। जगत जीव सब जाय बिगोई।। ताते करहु कृपा दुखभंजन। वंशन छले नहिं काल निरंजन।। और कछू मैं जानौं नाहीं। मोरलाज प्रभु तुम कहँ आही।। भावार्थ :- धर्मदास जी ने शंका की और समाधान चाहा कि हे परमेश्वर जी! आपने मेरे वंश (बिन्द वालों) को कडि़हार (नाद दीक्षा देकर मोक्ष करने वाला) बना दिया। मुझे एक शंका है कि जैसे आपने मुझे कहा है कि तुम सुकृत अंश हो, संसार में जीवों के उद्धार के लिए भेजा है। आगे मेरे को काल ने फंसा लिया। आप मुझे सुकृत अंश कहते हो तो भी मेरे को काल कराल ने डस लिया यानि अपना रंग

Saat Naam

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*‘‘सारशब्द (सार नाम) से लाभ‘‘*  सार शब्द विदेह स्वरूपा। निअच्छर वहि रूप अनूपा।। तत्त्व प्रकृति भाव सब देहा। सार शब्द नितत्त्व विदेहा।। कहन सुनन को शब्द चौधारा। सार शब्द सों जीव उबारा।। पुरूष सु नाम सार परबाना। सुमिरण पुरूष सार सहिदाना।। बिन रसना के सिमरा जाई। तासों काल रहे मुग्झाई।। सूच्छम सहज पंथ है पूरा। तापर चढ़ो रहे जन सूरा।। नहिं वहँ शब्द न सुमरा जापा। पूरन वस्तु काल दिख दापा।। हंस भार तुम्हरे शिर दीना। तुमको कहों शब्द को चीन्हा।। पदम अनन्त पंखुरी जाने। अजपा जाप डोर सो ताने।। सुच्छम द्वार तहां तब परसे। अगम अगोचर सत्पथ परसे।। अन्तर शुन्य महि होय प्रकाशा। तहंवां आदि पुरूष को बासा।। ताहिं चीन्ह हंस तहं जाई। आदि सुरत तहं लै पहुंचाई।। आदि सुरत पुरूष को आही। जीव सोहंगम बोलिये ताही।। धर्मदास तुम सन्त सुजाना। परखो सार शब्द निरबाना।।  सारनाम पूर्ण सतगुरू से प्राप्त होता है। नाम प्राप्त करने से सतलोक की प्राप्ति होती है। धर्मराय (ज्योति स्वरूपी निरंजन अर्थात् काल ब्रह्म) भी सार शब्द प्राप्त भक्त के सामने नतमस्तक हो जाता है। सार शब्द की शक्ति के सामने काल ब्रह्म टिक न

जैसे पृथ्वी में सहनशीलता होती है। इसी प्रकार

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‘‘मृतक के और दृष्टांत‘‘ (अनुराग सागर के पृष्ठ 7 से वाणी नं. 7 से 20) सुनहु संत यह मृतक सुभाऊ। बिरला जीव पीव मग धाऊ।। औरै सुनहु मृतक का भेवा। मृतक होय सतगुरू पद सेवा।। मृतक छोह तजै शब्द उरधारे। छोह तजै तो जीव उबारे।। ‘‘परमेश्वर कबीर वचन = मृतक के दृष्टान्त‘‘ परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! यह जो प्रश्न आपने किया है, यह जटिल कथा प्रसंग है। सतगुरू शरण में ज्ञान का इच्छुक ही इसको समझकर खरा उतरता है। "पृथ्वी का दृष्टांत" जस पृथ्वी के गंजन होई। चित अनुमान गहे गुण सोई।। कोई चन्दन कोई विष्टा डारे। कोई कोई कृषि अनुसारे।।  गुण औगुण तिन समकर जाना। तज विरोध अधिक सुखमाना।। ‘‘पृथ्वी का उदाहरण‘‘ जैसे पृथ्वी में सहनशीलता होती है। इसी प्रकार पृथ्वी वाले गुण को जो ग्रहण करेगा, वह जीवित मृतक है और वही सफल होता है। पृथ्वी के ऊपर कोई बिष्टा (टट्टी करता है। डालता है, कोई खेती करता है तो चीरफाड़ करता है। कोई-कोई धरती पूजन करता है। पृथ्वी गुण-अवगुण नहीं देखती। जिसकी जैसी भावना है, वह वैसा ही करता है। यह विचार करके धरती विरोध न करके सुखी रहती है। भावार्थ है कि जैसे जमीन सहनशील है, वैसे ही भक्त

संत-साधकजन जीवित मृतक होकर परमात्मा को खोजते हैं

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(अनुराग सागर के पृष्ठ 6 से वाणी नं. 7 से 17) धर्मदास वचन मृतक भाव प्रभु कहो बुझाई। जाते मनकी तपनि नसाई।। केहि विधि मरत कहो यह जीवन। कहो विलोय नाथ अमृतधन।। कबीर वचन-मृतक के दृष्टांत (उदाहरण) धर्मदास यह कठिन कहानी। गुरूगम ते कोई विरले जानी।। भृंगी का दृष्टांत (उदाहरण) मृतक होय के खोजहिं संता। शब्द विचारि गहैं मगु अन्ता।। जैसे भृंग कीट के पासा। कीट गहो भृंग शब्द की आशा।। शब्द घातकर महितिहि डारे। भृंगी शब्द कीट जो धारे।। तब लैगौ भृंगी निज गेहा। स्वाती देह कीन्हो समदेहा।। भृंगी शब्द कीट जो माना। वरण फेर आपन करजाना।। बिरला कीट जो होय सुखदाई। प्रथम अवाज गहे चितलाई।। कोइ दूजे कोइ तीजे मानै। तन मन रहित शब्द हित जानै।। भृंगी शब्द कीट ना गहई। तौ पुनि कीट आसरे रहई।। एक दिन कीट गहेसी भृंग भाषा। वरण बदलै पूरवै आशा।। ‘‘भृंगी का दृष्टांत‘‘ संत-साधकजन जीवित मृतक होकर परमात्मा को खोजते हैं। शब्द विचार यानि यथार्थ नाम मंत्रों को समझ विचार करके उस मार्ग के अंत यानि अंतिम छोर तक पहुँचते हैं अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं। जैसे एक भृंग (पंखों वाला नीले रंग का कीड़ा) होता है जिसे भंभीरी कहत

इस काल ब्रह्म यानि ज्योति निरंजन के इक्कीस ब्रह्माण्डों के क्षेत्र में सर्व प्राणी कर्म करके ही आहार प्राप्ति करते हैं।

पूर्ण मुक्ति कहते हैं जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है तथा जिस सिद्धी मोक्ष शक्ति को ‘‘नैर्ष्कम्य‘‘ सिद्धि कहा है जिसका वर्णन गीता अध्याय 3 श्लोक 4, अध्याय 18 श्लोक 49 से 62 में है। इस काल ब्रह्म यानि ज्योति निरंजन के इक्कीस ब्रह्माण्डों के क्षेत्र में सर्व प्राणी कर्म करके ही आहार प्राप्ति करते हैं। सत्यलोक में ऐसा नहीं है। वहाँ बिना कर्म किए सर्व सुख पदार्थ प्राप्त होते हैं। जैसे बाग में फलों से लदपद वृक्ष तथा बेल होते हैं। फल तोड़ो और खाओ। सर्व प्रकार का अनाज भी ऐसे ही उगा रहता है। सदा बहार हैं। जो इच्छा है, बनाओ और खाओ। वहाँ पर खाना बनाना नहीं पड़ता। भोजनालय में रखो जो खाना चाहते हो, अपने आप तैयार हो जाता है। यह सब परमेश्वर की शक्ति से होता है। उस सतलोक (शाश्वत स्थान) को प्राप्त करने के लिए आप जी को सती तथा शूरमा की तरह कुर्बान होना पड़ेगा। भावार्थ है कि अपने उद्देश्य यानि पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संसार के सर्व लोभ-लाभ त्यागने पड़ें तो विचारने की आवश्यकता नहीं है। तुरंत छोड़ो और अपने स्मरण ध्यान में मगन रहो। यदि सतगुरू की शरण

अपने शरीर के समान अन्य कुछ वस्तु प्रिय नहीं है, वह शरीर भी आपके साथ नहीं जाएगा।

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परमेश्वर कबीर जी ने समझाया कि हे धर्मदास!  स्व तनु सम प्रिय और न आना। सो भी संग न चलत निदाना।। अपने शरीर के समान अन्य कुछ वस्तु प्रिय नहीं है, वह शरीर भी आपके साथ नहीं जाएगा। फिर अन्य कौन-सी वस्तु को तू अपना मानकर फूले और भगवान भूले फिर रहे हो। सर्व संपत्ति तथा परिजन एक स्वपन जैसा साथ है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि मेरी अपनी राय यह है कि पूर्ण संत से सत्य नाम (सत्य साधना का मंत्र) लेकर अपने जीव का कल्याण कराओ और जब तक आप स्वपन (संसार) में हैं, तब तक स्वपन देखते हुए पूर्ण संत की शरण में जाकर सच्चा नाम प्राप्त करके अपना मोक्ष कराओ। सर्व प्राणी जीवन रूपी रेलगाड़ी में सफर कर रहे हैं। जिस डिब्बे  में बैठे हो, वह आपका नगर है। जिस सीट पर बैठे हो, वह आपका परिवार है। जिस-जिसकी यात्रा पूरी हो जाएगी, वे अपने-अपने स्टेशन पर उतरते जाएंगे। यही दशा इस संसार की है। जैसे यात्रियों को मालूम होता है कि हम कुछ देर के साथी हैं। सभ्य व्यक्ति उस सफर में प्यार से रहते हैं। एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। इसी प्रकार हमने अपने स्वपन वाले समय को व्यतीत करना है। स्वपन टूटेगा यानि शरीर छूटेगा तो पता चले

हम किसके घर पुत्र या पुत्र रूप में जन्म लेंगे

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परमेश्वर कबीर जी ने समझाया कि हे धर्मदास!  स्व तनु सम प्रिय और न आना। सो भी संग न चलत निदाना।। अपने शरीर के समान अन्य कुछ वस्तु प्रिय नहीं है, वह शरीर भी आपके साथ नहीं जाएगा। फिर अन्य कौन-सी वस्तु को तू अपना मानकर फूले और भगवान भूले फिर रहे हो। सर्व संपत्ति तथा परिजन एक स्वपन जैसा साथ है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि मेरी अपनी राय यह है कि पूर्ण संत से सत्य नाम (सत्य साधना का मंत्र) लेकर अपने जीव का कल्याण कराओ और जब तक आप स्वपन (संसार) में हैं, तब तक स्वपन देखते हुए पूर्ण संत की शरण में जाकर सच्चा नाम प्राप्त करके अपना मोक्ष कराओ। सर्व प्राणी जीवन रूपी रेलगाड़ी में सफर कर रहे हैं। जिस डिब्बे  में बैठे हो, वह आपका नगर है। जिस सीट पर बैठे हो, वह आपका परिवार है। जिस-जिसकी यात्रा पूरी हो जाएगी, वे अपने-अपने स्टेशन पर उतरते जाएंगे। यही दशा इस संसार की है। जैसे यात्रियों को मालूम होता है कि हम कुछ देर के साथी हैं। सभ्य व्यक्ति उस सफर में प्यार से रहते हैं। एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। इसी प्रकार हमने अपने स्वपन वाले समय को व्यतीत करना है। स्वपन टूटेगा यानि शरीर छूटेगा तो पता चले