जैन धर्म में दो प्रकार के साधु हैं:-
1) बिल्कुल नंगे रहते हैं जो पूर्व के महापुरूषों की नकल कर रहे हैं। जैन धर्म की स्त्री, पुरूष, युवा लड़के-लड़कियां, बच्चे-वृद्ध सब उन नंगे साधुओं की पूजा करते हैं।
2) इनको दिगंबर साधु कहा जाता है। इनमें स्त्रियों को साधु नहीं बनाया जाता। विचारणीय विषय है कि क्या स्त्री को मोक्ष नहीं चाहिए। यदि आपका मार्ग सत्य है तो स्त्रियों को भी करो नंगा, निकालो जुलूस। सच्चाई को न मानकर मात्र परंपरा का निर्वाह करने से परमात्मा प्राप्ति नहीं होती।
2) दूसरे साधु श्वेताम्बर हैं। वे सफेद वस्त्र, मुख पर कपड़े की पट्टी रखते हैं। इसमें स्त्रियां भी साधु हैं। मारीचि जी के जीव ने प्रथम तीर्थकंर ऋषभ देव जी से दीक्षा लेकर साधना की थी जो ऋषभ देव जी की बताई साधना विधि थी। उसके परिणामस्वरूप गधा, कुत्ता, घोड़ा, बिल्ली, धोबी, वैश्या का जीवन भोगा और स्वर्ग-नरक में भटके। फिर महाबीर जैन बने। महाबीर जी ने तो किसी से धर्मदेशना (दीक्षा) भी नहीं ली थी यानि गुरू नहीं बनाया था। उन्होंने तो मनमाना आचरण करके साधना की जिसको गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ बताया है। कबीर जी ने कहा है कि:-
3) गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान।
4) गुरू बिन दोनों निष्फल है, पूछो वेद पुराण।।
इसी कारण से महाबीर जी का मोक्ष संभव नहीं है। महाबीर जी ने अपने अनुभव से 363 पाखण्ड मत चलाए जो वर्तमान में जैन धर्म में प्रचलित हैं। विचार करें महाबीर जैन की आगे क्या दुर्दशा हुई होगी? यह स्पष्ट है क्योंकि राजा ऋषभ देव वेदों अनुसार साधना करते थे। वही दीक्षा मारीचि जी को दी थी। वेदों अनुसार साधना करने से मारीचि वाले जीव को ऊपर लिखित लाभ-हानि हुई। जन्म-मरण जारी है तो महाबीर जी ने तो वेदों के विरूद्ध शास्त्रा विधि त्यागकर मनमाना आचरण किया था। गुरू से दीक्षा भी नहीं ली थी। उनको तो स्वपन में भी स्वर्ग नहीं मिलेगा। अन्य वर्तमान के जैनी भाई-बहनों को क्या मिलेगा?
जैनी मानते हैं कि
1) सृष्टि का कोई कर्ता नहीं है। यह अनादि काल से चली आ रही है। नर-मादा के संयोग से उत्पत्ति होती है, मरते हैं।
2) 2) जैनी मूर्ति पूजा में विश्वास रखते हैं। किसी परमात्मा की मूर्ति नहीं रखते जिनको हिन्दु समाज प्रभु मानता है जैसे श्री विष्णु, श्री शिव जी, श्री ब्रह्मा जी या देवी जी। ये अपने तीर्थकंर को ही प्रभु मानते हैं, उन्हीं की मूर्ति मंदिरों में रखते हैं। ॐ मंत्र का स्वरूप तथा उच्चारण बिगाड़कर ओंकार को ‘‘णोंकार‘‘ बनाकर जाप करते हैं।
3) 3) जो स्त्राी या पुरूष श्वेताम्बरों से दीक्षा लेता है, उनके सिर तथा दाढ़ी के बाल हाथों से नोंच-नोंचकर उखाड़ते हैं, महान पीड़ा होती है। भक्ति में शरीर को अधिक कष्ट देना लाभदायक मानते हैं। (इस तरह की साधना तथा विधान निराधार तथा नरक दायक है। मोक्ष तो स्वपन में भी नहीं है।)
4) जैनियों का विधान है कि सृष्टि को रचने वाला कोई नहीं है। नर-मादा से उत्पन्न होते हैं, मरते रहते हैं। यह पढ़कर गीता अध्याय 16 श्लोक 8-9 याद आया।
गीता अध्याय 16 श्लोक 8:- वे आसुरी प्रकृति वाले कहा करते हैं कि जगत आश्रय रहित सर्वथा असत्य तथा (अनीश्वरम्) बिना ईश्वर के अपने आप केवल स्त्राी-पुरूष के संयोग से उत्पन्न होता है। केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा क्या है?
गीता अध्याय 16 श्लोक 9:- इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है, जिनकी बुद्धि मंद है यानि ज्ञानहीन है। सबका अपकार (बुरा) करने वाले यानि भ्रमित करके गलत ज्ञान, गलत साधना द्वारा अनमोल जीवन नष्ट कराने वाले (उग्रकर्माणः) क्रूरकर्मी सर्व बालों को नौंच-नौचकर उखाड़ना, निःवस्त्रा फिरना, गर्मी-सर्दी से शरीर को बिना वस्त्र के कष्ट देना, व्रत करने के उद्देश्य से कई-कई दिन तक भोजन न करना। फिर संथारा द्वारा भूखे-प्यासे रहकर देहान्त करना आदि-आदि क्रूरकर्म हैं। ऐसे क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत के नाश के लिए ही उत्पन्न होते हैं।
यह जैन धर्म का ज्ञान आपको परमेश्वर कबीर जी के बताए अनुसार लेखक ने बताया है।
कबीर सागर के अध्याय ‘‘जैन धर्म बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।
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