*अध्याय "हनुमान बोध" का सारांश | जीने की राह Part -B*
📜विचार करने की बात है। यदि कोई भार उठाता है तो दोनों हाथों से या एक हाथ से पकड़कर उठा लेता है, परंतु उसी भार को किसी डण्डे से उठाना चाहे तो कदापि नहीं उठा सकता। थोड़े भार को ही डण्डे से उठा सकता है। भरत जी ने महाबली हनुमान जी तथा द्रोणागिरी को धरती से 50 फुट ऊपर उठा दिया। त्रोतायुग में मनुष्य की ऊँचाई लगभग 70 या 80 फुट होती थी। यह कोई सामान्य बात नहीं है। कोई किसी व्यक्ति को डण्डे से उठाकर देखे, कैसा महसूस होगा? लक्ष्मण को वैद्य ने संजीवनी औषधि पिलाकर स्वस्थ किया। युद्ध हुआ, रावण मारा गया। रावण ने प्रभु शिव की भक्ति की थी। अपने दस बार शीश काटकर शिव जी को भेंट किए थे। दस बार शिव जी ने उसको वापिस कर दिए तथा आशीर्वाद दिया कि तेरी मृत्यु दस बार गर्दन काटने के पश्चात् होगी। रावण के दस बार सिर काटे गए थे। फिर नाभि में तीर लगने से नाभि अमृत नष्ट होने से रावण का वध हुआ था। दस बार सिर कटे, दस बार वापिस सिर धड़ पर लग गए। फिर विभीषण के बताने पर कि रावण की नाभि में अमृत है, रामचन्द्र ने रावण की नाभि में तीर मारने की पूरी कोशिश कर ली थी, परंतु रावण का ध्यान भी वहीं केन्द्रित था कि नाभि पर तीर न लगे। रामचन्द्र जी ने परमेश्वर को याद किया कि इस राक्षस को मारो, मेरी सहायता करो। हे महादेव! हे देवों के देव! हे महाप्रभु! मेरी सहायता करो। आपकी बेटी (सीता) महाकष्ट में है। आपके बच्चे तेतीस करोड़ देवता भी इसी राक्षस ने जेल में डाल रखे हैं। परमेश्वर कबीर जी ने उसी समय गुप्त रूप में रामचन्द्र के हाथों पर अपने सूक्ष्म हाथ रखे और तीर रावण की नाभि में मारा। तब रावण मरा।
{परमेश्वर कबीर जी की प्राप्ति के पश्चात् संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर, हरियाणा प्रान्त) ने परमेश्वर कबीर जी की महिमा बताई है। कबीर जी ने बताया है कि:-
कबीर, कह मेरे हंस को, दुःख ना दीजे कोय।
संत दुःखाए मैं दुःखी, मेरा आपा भी दुःखी होय।।
पहुँचुँगा छन एक मैं, जन अपने के हेत।
तेतीस कोटि की बंध छुटाई, रावण मारा खेत।।
जो मेरे संत को दुःखी करैं, वाका खोऊँ वंश।
हिरणाकुश उदर विदारिया, मैं ही मारा कंस।।
राम-कृष्ण कबीर के शहजादे, भक्ति हेत भये प्यादे।।}
लंका का राज्य रावण के छोटे भ्राता विभीषण को दिया। सीता की अग्नि परीक्षा श्री राम ने ली। यदि रावण ने सीता मिलन किया है तो अग्नि में जलकर मर जाएगी। यदि सीता पाक साफ है तो अग्नि में नहीं जलेगी। सीता जी अग्नि में नहीं जली। उपस्थित लाखों व्यक्तियों ने सीता माता की जय बुलाई। सीता सती की पदवी पाई। रावण का वध आसौज मास की शुक्ल पक्ष की दसवीं को हुआ था।
रावण वध के 20 दिन बाद 14 वर्ष की वनवास अवधि पूरी करके श्रीराम, लक्ष्मण और सीता पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या नगरी में आए। उस दिन कार्तिक मास की अमावस्या थी। उस काली अमावस्या को गाय के घी के दीप अपने-अपने घरों के अंदर तथा ऊपर मण्डेरों पर जलाकर श्रीराम, सीता तथा लक्ष्मण के आगमन की खुशी मनाई। भरत ने अपने भाई श्री रामचन्द्र जी को राज्य लौटा दिया। एक दिन श्री रामचन्द्र जी से सीता ने कहा कि मैं युद्ध में लड़ने वाले योद्धाओं को कुछ इनाम देना चाहती हूँ। इनाम में सीता जी ने हनुमान जी को अपने गले से सच्चे मोतियों की माला निकालकर दे दी तथा कहा, हे हनुमान! यह अनमोल उपहार मैं आपको दे रही हूँ, बहुत सम्भाल कर रखना। हनुमान जी ने उस माला का मोती तोड़ा, फिर फोड़ा। फिर दूसरा, देखते-देखते सब मोती फोड़कर जमीन पर फैंक दिए। सीता जी को हनुमान जी का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। क्रोध में भरकर कहने लगी कि हे मूर्ख! यह क्या कर दिया? ऐसी अनमोल माला का सर्वनाश कर दिया। तू वानर का वानर ही रहा। चला जा मेरी आँखों के सामने से। उस समय श्री रामचन्द्र जी भी सीता जी के साथ ही सिंहासन पर विराजमान थे। उन्होंने भी हनुमान के इस व्यवहार को अच्छा नहीं माना और चुप रहे। हनुमान जी ने कहा, माता जी! जिस वस्तु में राम-नाम अंकित नहीं है, वह मेरे किसी काम की नहीं है। मैंने मोती फोड़कर देखे हैं, इनमें राम-नाम नहीं निकला। इसलिए मेरे काम की नहीं है। सीता जी ने कहा, क्या तेरे शरीर में राम-नाम लिखा है? फिर इस शरीर को किसलिए साथ लिए है, इसको फैंक दे फाड़कर। उसी समय हनुमान जी ने अपना सीना चाक (चीर) कर दिखाया। उसमें राम-राम लिखा था। हनुमान जी उसी समय अयोध्या त्यागकर वहाँ से कहीं दूर चले गए।
श्री रामचन्द्र जी अपनी अयोध्या नगरी की जनता के दुःख दर्द जानने के लिए गुप्त रूप से रात्रि के समय वेश बदलकर घूमा करते थे। कुछ वर्ष उपरांत जब राजा रामचन्द्र जी रात्रि में अयोध्या की गलियों में विचरण कर रहे थे। एक घर से ऊँची-ऊँची आवाज आ रही थी। राजा रामचन्द्र जी ने निकट जाकर वार्ता सुनी। एक धोबी की पत्नी झगड़ा करके घर से चली गई थी। वह दो-तीन दिन अपने बहन के घर रही, फिर लौट आई। धोबी उसकी पिटाई कर रहा था। कह रहा था कि निकल जा मेरे घर से, तू दो रात बाहर रहकर आई है। मैं तेरे को घर में नहीं रखूँगा। तू कलंकित है। वह कह रही थी, मुझे सौगंध भगवान की। सौगंध है राजा राम की, मैं पाक साफ हूँ। आपने मारा तो मैं गुस्से से अपनी बहन के घर गई थी, मैं निर्दोष हूँ। धोबी ने कहा कि मैं दशरथ पुत्र रामचन्द्र नहीं हूँ जो अपनी कलंकित पत्नी को घर ले आया है जो वर्षों रावण के साथ रही थी। अयोध्या नगरी के सब लोग-लुगाई चर्चा कर रहे हैं। क्या जीना है ऐसे व्यक्ति का जिसकी पत्नी अपवित्र हो गई हो। राजा राम ने धोबी के मुख से यह बात सुनी तो कानों में मानो गर्म तेल डाल दिया हो।
अगले दिन रामचन्द्र जी ने सभा बुलाई तथा नगरी में चल रही चर्चा के विषय में बताया और कहा कि यह चर्चा तब बंद हो सकती है, जब मैं सीता को घर से निकाल दूँगा। उसी समय सीता जी को सभा में बुलाया गया तथा घर से निकलने का आदेश दे दिया। कारण भी बता दिया। सीता जी ने विनय भी की कि हे स्वामी! आपने मेरी अग्नि परीक्षा भी ली थी। मैं भी आत्मा से कहती हूँ, रावण ने मेरे साथ मिलन नहीं किया। कारण था कि उसको एक ऋषि का शाॅप था कि यदि तू किसी परस्त्राी से बलात्कार करेगा तो तेरी उसी समय मृत्यु हो जाएगी। यदि परस्त्राी की सहमति से मिलन करेगा तो ऐसा नहीं होगा। जिस कारण से रावण मुझे छू भी नहीं सका मिलन के लिए। हे प्रभु! मैं गर्भवती हूँ। ऐसी स्थिति में कहाँ जाऊँगी? रावण जैसे व्यक्तियों का अभाव नहीं है। रामचन्द्र जी आदेश देकर सभा छोड़कर चले गए। कहते गए कि मैं निंदा का पात्र नहीं बनना चाहता। मेरे कुल को दाग लगेगा। सीता जी को धरती भी पैरों से खिसकती नजर आई। आसमान में अँधेरा छाया दिखाई दिया। संसार में कुछ दिनों का जीवन शेष लगा।
सीता अयोध्या छोड़कर चल पड़ी। मुड़-मुड़कर अपने राम को तथा उसके महलों को देखने की कोशिश करती रही और दूर जंगल में जाकर ऋषि वाल्मिीकि जी की कुटिया के निकट थककर गिर गई, अचेत हो गई। ऋषि वाल्मिीकि स्नान करने के लिए आश्रम से निकले। सामने एक युवती गर्भावस्था में अचेत पड़ी देखकर निकट गए। अपने आश्रम से औषधि लाए। सीता जी के मुख में डाली। गर्मी का मौसम था। ठण्डे जल के छींटे मुख पर मारे। उसी समय सीता जी सचेत होकर बैठ गई। ऋषि ने नाम और गाँव पूछा तो बताया कि नीचे पृथ्वी, ऊपर आसमान, आगे कुछ बताने से इंकार कर दिया। ऋषि दयावान होते हैं। कहा, बेटी संसार तो स्वार्थ का है। धन्यवाद कर परमात्मा का, तू मेरे आश्रम में आ गई। बेटी मुझे अपना पिता मान और मेरे पास रह। सीता जी ऋषि वाल्मिीकि जी के आश्रम में रहने लगी। ऋषि ने भी बात आगे नहीं बढ़ाई।
क्रमशः.....
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