लीला नं. 3:- परमात्मा कबीर जी अपने गुण अनुसार फिर एक लीला करने आए। एक यात्री (मुसाफिर) का रूप बनाकर काख में कपड़ों की पोटली, ग्रामीण वेशभूषा में शाम के समय सुल्तान के निवास में आए। सुल्तान घर के द्वार पर आँगन में कुर्सी पर बैठा था। राजा ने पूछा कि आप यहाँ किसलिए आए हो? परमात्मा कबीर जी ने कहा कि मैं एक यात्री हूँ। रात्रि में आपकी धर्मशाला (सराय) में रूकना है। एक रात का भाड़ा (किरवाया) बता, कितना लेगा। अब्राहिम अधम सुल्तान हँसा और कहा कि हे भोले मुसाफिर, यह सराय नहीं है। यह तो मेरा महल है। मैं नगरी का राजा हूँ। परमात्मा बन्दी छोड़ दया के सागर ने प्रश्न किया आपसे पहले इस महल में कौन रहता था? सुल्तान अब्राहिम अधम ने उत्तर दिया कि मेरे बाप-दादा आदि रहते थे।
प्रश्न प्रभु काः- वे कहाँ हैं? मैं उन्हें देखना चाहता हूँ। उत्तर सुल्तान काः- वे तो अल्लाह को प्यारे हुए। परमात्मा ने प्रश्न किया कि आप कितने दिन इस महल में रहोगे। उत्तर के स्थान पर सुल्तान ने चिंतन किया और कहा कि मुझे भी मरना है। परमेश्वर ने कहा कि हे भोले प्राणी! यह सराय (धर्मशाला) नहीं तो क्या है?
तेरे बाप-दादा पड़ पीढ़ी। वे बसे इसी सराय में गीद्यी।।
ऐसे ही तू चल जाई। तातें हम महल सराय बताई।।
अब तू तख्त बैठकर भूली। तेरा मन चढ़ने को सूली।।
इतना कहकर परमात्मा गुप्त हो गए। सुल्तानी को मूर्छा आ गई। बहुत देर में होश में आया। अन्य मौलवी बुलाया। उसने बांयी बाजु पर ताबीज बाँधकर झाड़फूँक की, कहा कि अब कुछ नहीं होगा। चला गया।
लीला नं. 4:- कुछ दिन बाद राजा सामान्य होकर फिर मौज-मस्ती करने लगा। दिन के समय राजा अब्राहिम अपने नौलखा (जिसमें नौ लाख फलदार पेड़ भिन्न-भिन्न प्रकार के लगाए जाते थे, उसको नौलखा बाग कहते थे।) बाग में सोया करता था। उसके बिस्तर को नौकरानियाँ बिछाया करती थी। फूलों के गुलदस्ते चारों ओर रखा करती थी। नौकरानियों की पोषाक रानियों से भिन्न होती थी। सब बांदियों की पोषाक एक जैसी होती थी। दीन दयाल कबीर जी ने उस अपनी प्यारी आत्मा सम्मन के जीव को काल जाल से निकालने के लिए क्या-क्या उपाय करने पड़ रहे हैं। एक दिन परमेश्वर कबीर जी ने नौकरानी का वेश बनाया। स्त्री रूप धारण किया। बाग में राजा का बिस्तर (सेज) बिछाया। फूलों के गुलदस्ते अत्यंत सुन्दर तरीके से लगाए और स्वयं उस सेज पर लेट गए। राजा अब्राहिम आया तो देखा, एक बांदी (खवासी) मेरी सेज पर सो रही है। इसको मेरा जरा-सा भी भय नहीं है। सुल्तान ने उसी समय कोड़ा उठाकर लेटे हुए परमेश्वर की कमर पर तीन बार मारा। तीन निशान कमर पर बन गए, खाल उतर गई। बांदी वेश में परमेश्वर ने पलंग से नीचे उतरकर एक बार रोने का अभिनय किया और फिर जोर-जोर से हँसने लगे। दासी को इतनी चोट लगने के पश्चात् भी हँसते देखकर अब्राहिम आश्चर्य में पड़ गया। वह विचार कर रहा था कि बांदी को तो बेहोश हो जाना चाहिए था या मर जाना चाहिए था। राजा ने दासी वेश धारी परमात्मा का हाथ पकड़ा और पूछा कि हँस किसलिए रही है? परमात्मा ने कहा कि मैं इस बिस्तर पर एक घड़ी (22 मिनट) लेटी हूँ, विश्राम किया है। एक घड़ी के विश्राम का दण्ड मुझे तीन कोड़े मिला है। मेरे शरीर का चाम भी उतर गया है। मैं इसलिए हँस रही हूँ कि जो इस गंदी सेज पर दिन-रात सोता है, उसका क्या हाल होगा? मुझे तेरे ऊपर तरस आ रहा है भोले प्राणी!
मैं एक घड़ी सेज पर सोई। ताते मेरा यह हाल होई।।
जो सोवै दिवस और राता। उनका क्या हाल विधाता।।
गैब भये ख्वासा। सुल्तानी भये उदासा।।
यह कौन छलावा भाई। याका भेद समझ ना आई।।
यह दृश्य देखकर सुल्तान अधम अचेत हो गया। उठा तब सोचा कि यह क्या हो रहा है? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।
क्रमशः....
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