मुसलमान धर्म की जानकारी 12
क्या इस्लाम में मांस के सेवन की अनुमति है?
उत्तर : मुसलमान अल्लाह के नाम पर जानवरों का मांस खाते हैं और यहाँ तक की "बकरीद" नामक त्यौहार भी मनाते हैं, जिसमें वे बकरे को मारकर उसका मांस "प्रसाद" के रूप में खाते हैं। वे कलमा पढ़ कर निर्दोष जीवों की हत्या कर देते हैं।
एक तथ्य पर विचार करें। एक तरफ, मुसलमान अल्लाह की बंदगी करते हैं और दूसरी तरफ, वे उसी प्रभु के जीव का कत्ल करते हैं। जबकि परमात्मा की नज़र में सब जीव बराबर हैं। क्या माता-पिता ऐसे बच्चे से खुश हो सकते हैं जो उनके दूसरे बच्चे को मारता हो। इस बात पर मुसलमान भाई अपना तर्क देते हैं कि वे हिंदुओं की तरह नहीं हैं, जो झटके से जानवर को मार देते हैं। बल्कि, वे तो जानवर को प्यार से मारते हैं यानि हलाल करते हैं। कहाँ गया इनका विवेक? किसी भी तरीके से अपने परिवार के सदस्य को मारने की कोशिश करो, दर्द एक जैसा ही होता है और इसका पाप अलग।
साथ ही, मुसलमान भाइयों का कहना है कि बकरे की आत्मा सीधे जन्नत में जाती है। क्योंकि वे जानवरों को हलाल करते हुए कलमा पढ़ते हैं। अगर ऐसा है और आप इसे सच मानते हैं, तो बकरों की बारी तो कभी नहीं आती, लोग तो पहले स्वयं हलाल हो जाते और जन्नत में चले जाते।
प्रभु या धर्म के नाम पर मांस का सेवन करना, एक बहुत बड़ा पाप है।
इन शब्दों पर ध्यान दें;
नबी मुहम्मद नमस्कार है, राम रसूल कहाया।
एक लाख अस्सी कूं सौगंध, जिन नहीं करद चलाया।।
अरस कुरस पर अल्लह तख्त है, खालिक बिन नहीं खाली।
वे पैगम्बर पाख पुरुष थे, साहिब के अब्दाली।।
भावार्थ: नबी मोहम्मद तो आदरणीय हैं जो प्रभु के सन्देशवाहक कहलाए हैं। कसम है एक लाख अस्सी हजार को जो उनके अनुयायी थे उन्होंने भी कभी बकरे, मुर्गे तथा गाय आदि पर करद नहीं चलाया अर्थात् जीव हिंसा नहीं की तथा माँस भक्षण नहीं किया।
वे हजरत मोहम्मद, हजरत मूसा, हजरत ईसा आदि पैगम्बर (संदेशवाहक) तो पवित्र व्यक्ति थे तथा ब्रह्म(ज्योति निरंजन/काल) के कृपा पात्र थे, परन्तु जो आसमान के अंतिम छोर (सतलोक) में पूर्ण परमात्मा (अल्लाहू अकबर अर्थात्
अल्लाह कबीर) है उस सृष्टि के मालिक की नजर से कोई नहीं बचा।
नबी मोहम्मद तो इतने दयालु थे कि उन्होंने कभी किसी व्यक्ति से ब्याज तक की मांग नहीं की, जीव हत्या तो दूर की बात है।
साथ ही, ये बात भी सत्य है;
मारी गऊ शब्द के तीरं, ऐसे थे मोहम्मद पीरं।।
शब्दै फिर जिवाई, हंसा राख्या माँस नहीं भाख्या, एैसे पीर मुहम्मद भाई।।
भावार्थ : एक समय नबी मुहम्मद ने एक गाय को शब्द (वचन सिद्धि) से मार कर सर्व के सामने जीवित कर दिया था (वास्तव में यह पूर्ण प्रभु द्वारा ही किया गया था)। उन्होंने गाय का मांस कभी नहीं खाया। फिर उनके अनुयायी कैसे ये क्रूरता कर सकते हैं?
अब मुसलमान समाज वास्तविकता से परिचित नहीं है। जिस दिन गाय जीवित की थी उस दिन की याद बनाए रखने के लिए गऊ मार देते हो। आप जीवित नहीं कर सकते तो मारने के भी अधिकारी नहीं हो। आप माँस को प्रसाद रूप जान कर खाते तथा खिलाते हो। आप स्वयं भी पाप के भागी बनते हो तथा अनुयाईयों को भी गुमराह कर रहे हो। आप दोजख (नरक) के पात्र बन रहे हो।
गरीब, राबी मक्केकूं चली, धरया अल्हका ध्यान। कुत्ती एक प्यासी खड़ी, छुटे जात हैं प्राण।।
गरीब, केश उपारे शीशके, बाटी रस्सी बीन। जाकै बस्त्र बांधि कर, जल काढ्या प्रबीन।।
गरीब, सुनही कूं पानी पिया, उतरी अरस अवाज। तीन मजल मक्का गया, बीबी तुह्मरे काज।।
मुस्लिम धर्म में "राबिया" नाम से एक आदरणीय श्रद्धालु थी, जिसका दिल दया से इस हद तक भर गया था कि उसने एक कुतिया को कुँए से जल निकालकर पिलाने के लिए अपने सिर के बाल उखाड़कर रस्सी बनाई। कपड़े उतारकर उस रस्सी से बाँधकर जल निकालकर प्यासी कुतिया के जीवन की रक्षा की है। इसलिए अल्लाह अकबर ने यह करिश्मा किया कि मक्का यानी मस्जिद अपने स्थान से उठकर उड़कर कुँए के साथ लग गया। जब कोई आत्मा इस तरह का कृत्य करने के लिए इतनी दयालुता दिखा सकती है और बलिदान कर सकती है, तो अन्य लोग किस मानसिकता के आधार पर जीव हत्या या बिस्मिल करने को जायज़ ठहरा सकते हैं।
रोजा, बंग, नमाज दई रे। बिसमिल की नहीं बात कही रे।।
भावार्थ : नबी मुहम्मद जी ने रोजा(व्रत) बंग(ऊँची आवाज में प्रभु स्तुति करना) तथा पाँच समय की नमाज करना तो कहा था परन्तु गाय आदि प्राणियों को बिस्मिल करने (मारने) को नहीं कहा था।
इस प्रकार, मांस मनुष्यों का आहार नहीं है और कहीं नहीं लिखा है कि इस प्रथा का पालन इस धर्म के लोगों द्वारा किया जाना चाहिए। यह एक जघन्य पाप है। जो मांस खाते हैं उनके सत्तर जन्म तक मानव या बकरा-बकरी, भैंस या मुर्गे आदि के जीवनों में सिर कटते हैं। यह जान लेने के बाद कि मांस का सेवन एक जघन्य पाप है, आइए अब हम अगले और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न पर चलते हैं।
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