सुदामा जी और कृण्ण की मित्रता
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# सुदामा और कृष्ण की कथा--------
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सुदामा जी ने कहा कि :-
तेरी दया से है भगवन, हमको सुख सारा है। किसी वस्तु की कमी नहीं, मेरा ठीक गुजारा है।।
श्री कृष्ण जी तो समझ चुके थे कि यह मर जाएगा, माँगेगा नहीं।
उसी समय सुदामा जी को दूसरे कक्ष में विश्राम के लिए निवेदन किया और राजदरबार में जाकर विश्वकर्मा जी को बुलाया जो मुख्य इन्जीनियर था तथा सुदामा जी का पूरा पता लिखाकर उसका सुंदर महल बनाने का आदेश दिया तथा कहा कि लाखों रूपये का धन ले जा जो भक्त के घर रख आना। यह कार्य एक सप्ताह में होना चाहिए। विश्वकर्मा जी ने छः दिन में कार्य सम्पूर्ण करके रिपोर्ट दे दी। सुदामा जी प्रतिदिन चलने के लिए कहते तो श्री कृष्ण जी विशेष विनय करके रोके रहे। सातवें दिन सुदामा चल पड़ा, नए बहुमूल्य वस्त्र पहने हुए थे। रास्ते में सोचता हुआ आ रहा था कि कृष्ण मेरे से पूछ रहा था कि किसी वस्तु का अभाव तो नहीं है। क्या उसको दिखाई नहीं दे रहा था कि मेरा क्या हाल है? वही बात सही हुई कि मित्रता समान हैसियत वालों की निभती है। इतनी देर में जंगली भीलों ने रास्ता रोक लिया और कहा कि निकाल दे जो कुछ ले रखा है। सुदामा जी ने कहा कि मेरे पास कुछ नहीं है। भीलों ने तलाशी ली तो कुछ नहीं मिला। सुदामा जी के कीमती धोती-कुर्ता छीन ले गए, उनको नंगा छोड़ गए। सुदामा जी को यह सजा अविश्वास की मिली थी।
शाम को सूर्य अस्त के बाद अपनी झोंपड़ी से थोड़ी दूरी पर अंधेरे में एक वृक्ष के नीचे
खड़ा होकर देखने लगा तो देखा कि झोंपड़ी उखाड़कर फैंक रखी है। उसके स्थान पर
आलीशान महल दो मंजिल का बना है। सुदामा जी दुःखी हुए कि किसी ने झोंपड़ी (कुटिया) भी उखाड़ दी और कब्जा करके अपना मकान बना लिया। बच्चे तथा पत्नी पता नहीं कहाँ भूख के मारे डूबकर मर गए होंगे। अब जीवित रहकर क्या करना है? मैं भी दरिया में समाधि लेकर जीवन अंत करता हूँ। यदि परिवार जीवित भी होगा तो भूख के मारे तड़फ रहा होगा। मेरे से देखा नहीं जाएगा। वहाँ से चलने वाला था। उसकी पत्नी महल पर खड़ी होकर अपने पति जी के आने की बाट देख रही थी। वह विचार कर रही थी कि विप्र जी अपनी झोंपड़ी को न पाकर कुछ बुरी न सोच लें। इसलिए द्वारिका के रास्ते पर टकटकी लगाए खड़ी थी। उसने उसी समय एक व्यक्ति अंधेरे में खड़ा महसूस हुआ। मिसरानी शीघ्रता से दीपक लेकर उस ओर चली। सुदामा जी वृक्ष की ओट में होकर देखने लगा कि यह स्त्री कौन है? दीपक लेकर कहाँ जाएगी? दीपक की रोशनी में सुदामा ने अपनी पत्नी को पहचान लिया। परंतु महल से आई है, यह क्या माजरा है? सुदामा जी ने कहा कि दीपक बुझाओ, मैं नंगा हूँ।
रास्ते में भीलों ने मेरे वस्त्र छीन लिए जो श्री कृष्ण जी ने नए बहुत कीमती बनवाए थे।
पंडितानी ने दीपक बुझा दिया। सुदामा ने पूछा कि यह महल किसने बना दिया? अपनी झोंपड़ी किसने उखाड़ दी? आप किसके महल से आई हो? नौकरानी का कार्य करने लगी
हो क्या? पंडितानी ने कहा कि हे स्वामी! यह महल आपके मित्र कृष्ण ने बनवाया है। आपके जाने के चौथे दिन सैंकड़ों कारीगर आए, साथ में बैलों पर पत्थर-ईटें, चूना तथा अन्न-धन लादकर लाए थे। छः दिन में सम्पूर्ण करके चले गए। आओ! यह आपका महल है। महल में आकर देखा तो अन्न-धन से भरपूर था। जीवनभर का सामान था। पंडितानी ने पूछा कि आपके कपड़े क्यों उतारे? आपके पास कुछ था ही नहीं, पुराने वस्त्र थे। उनका भील क्या करेंगे? तब सुदामा ने सारी घटना बताई तथा अपने उस घटिया विचार की भी जानकारी दी जो मित्र के प्रति आया था कि मेरे से कृष्ण पूछ रहा था कि घर में किसी वस्तु की कमी तो नहीं है। गुजारा ठीक चल रहा है क्या? मैंने कह दिया था कि आपकी कृपा से सब कुशल है। किसी वस्तु की कमी नहीं है। निर्वाह ठीक चल रहा है। पत्नी ने कहा कि आप कहाँ माँगने वाले हो, वे तो अंतर्यामी हैं। सब जान गए थे। सुदामा जी ने कहा कि सब जान गए थे। इसलिए तो मेरे वस्त्र भी छिनवा दिए। मैं विचार करता जा रहा था कि देखा! मित्र मेरे से पूछ रहा था कि सब ठीक तो है। किसी वस्तु की कमी तो नहीं है। मैं सोच रहा था कि क्या उसको मेरी दशा देखकर यह नहीं पता था कि यह दशा क्या ठीक-ठाक की होती है। ठीक ही कहा है कि मित्रता तो समान हैसियत वालों की निभती है। मैंने तो इतना विचार किया ही था कि उसी समय मेरे वस्त्र भी लूट लिए गए। तब मिसरानी ने कहा कि आपकी परीक्षा ली थी, परंतु आप यहीं पर चूके थे, उसी का झटका आपको दिया। अब देख तेरे मित्र का कमाल। बच्चों के वस्त्र राजाओं जैसे हैं। चार सिपाही चारों कोनों पर रखवाली कर रहे हैं।
वाणी नं. 106 में यही कहा है कि संत सुदामा श्री कृष्ण के संगी यानि मित्र थे जो दारिद्र
(टोटे यानि निर्धनता) की द्ररिया (नदी) यानि अत्यधिक निर्धन व्यक्ति था। उसके चावल
खाकर कंचन (स्वर्ण) के महल बख्श दिए यानि निःशुल्क (मुफ्त में) दे दिए।(106)
विचार :- श्री कृष्ण जी राजा थे। अपने मित्र की इतनी सहायता करना एक राजा के
लिए कोई बड़ी बात नहीं है। इतनी सहायता तो एक प्रान्त का मंत्री अपने मित्र की आसानी
से कर सकता है। परमेश्वर कबीर जी ने एक अति निर्धन मुसलमान लुहार तैमूरलंग की एक रोटी खाकर सात पीढ़ी का राज्य बख्श दिया था। उसी जीवन में तैमूरलंग राजा बना जिसका राज्य विशाल था। दिल्ली की राजधानी पर उसने अपना प्रतिनिधि छोड़ा था। उनकी मृत्यु के उपरांत कुछ समय दिल्ली की गद्दी पर अन्य ने कब्जा कर लिया था। फिर तैमूरलंग के पोते बाबर ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। पहले तैमूरलंग का प्रतिनिधि दिल्ली पर बैठा रखा था, उसकी तीसरी पीढ़ी ने अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। तब बाबर ने लड़ाई करके दिल्ली का राज्य प्राप्त किया। बाबर से औरंगजेब तक छः पीढ़ी तथा प्रथम तैमूरलंग, इस प्रकार कुल सात पीढ़ी का राज्य परमेश्वर कबीर जी ने तैमूरलंग को दिया।
1.तैमूरलंग
2. पोता बाबर।
3. हिमायुं पुत्र बाबर
4. अकबर पुत्रा हिमायुं
5. जहांगीर पुत्र अकबर
6. शाहजहाँ पुत्र जहांगीर
7. औरंगजेब पुत्र शाहजहाँ।
विशेष भिन्नता :- जन्म-मरण का कष्ट न श्री कृष्ण का समाप्त है, न सुदामा का हुआ। दोनों ही आगे के जन्मों में अन्य प्राणियों के शरीरों में जाऐंगे।
तैमूरलंग को सात पीढ़ी का राज्य भी मिला और मोक्ष भी मिला। सहायता में इतना
अंतर समझें। जैसे सहायता एक तो प्रान्त का मंत्री करे, दूसरा देश का प्रधानमंत्री करे।
कबीर जी यानि सतपुरूष को प्रधानमंत्री जानो और श्री कृष्ण जी (श्री विष्णु जी) को प्रान्त
का मंत्री जानो। फिर भी बात भक्ति की चल रही है। कबीर जी ने कहा है कि :-
कबीर, जो जाकी शरणा बसै, ताको ताकी लाज। जल सोंही मछली चढ़ै, बह जाते गजराज।।
क्रमशः..........
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