नाम का जाप:- मुसलमान अल्लाह अकबर नाम पुकारते हैं जो कबीर जी का नाम है। अल्लाह माने परमेश्वर तथा अकबर नाम कबीर है। केवल बोलने का अंतर है। जैसे अरबी भाषा में स्कूल को अस्कूल तथा स्थान को अस्थान बोलते हैं। इसी प्रकार कबीर को अकबीर बोलते हैं। फिर स्थान-स्थान की भाषा में अंतर होता है। जिस कारण से अल्लाह कबीर को अल्लाह अकबर बोला जाता है। मुसलमान अल्लाह अकबर पुकारते समय चिंतन करते हैं कि हम बड़े खुदा (अल्लाह अकबर) को पुकार रहे हैं। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में बड़ा है। कबीर उसी बड़े (कादर) अल्लाह के शरीर का नाम है। कबीर का अर्थ बड़ा भी है। जैसे ‘‘मंशूर’’ का अर्थ ‘‘प्रकाश’’ (Light) है। ‘‘मंशूर’’ आदमी का नाम भी रखा जाता है। इसीलिए कुरआन मजीद में जहाँ परमेश्वर के विषय में प्रकरण है, वहाँ कबीर का अर्थ बड़ा न करके ‘‘कबीर’’ ही करना उचित है। कबीर परमेश्वर की शरण में गुरू जी से दीक्षा लेकर जाप करने से इस नाम का जाप करने वाले को लाभ मिलता है। परंतु अकेले कबीर (अकबीर) बोलने से मोक्ष लाभ नहीं मिलता। संसार में कुछ कार्य सिद्ध हो जाते हैं। जैसे युद्ध में विजय, मुकदमों में न्याय आदि-आदि। इसके साथ-साथ सतनाम का (जो दो अक्षर का होता है, उसका) जाप करने से पूर्ण लाभ मिलता है। सूरः अश् शूरा-42 की आयत नं. 2 में अरबी भाषा की वर्णमाला के तीन अक्षर हैं:- ‘‘अैन, सीन, काफ‘‘ जिनको हिन्दी में अ, स, क, लिखा जाता है। सतनाम के दो अक्षरों का संकेत अैन (अ) तथा सीन (स) से है। ‘‘अ’’ सतनाम के प्रथम नाम का पहला (हरफ) अक्षर है। ‘‘स’’ सतनाम के दूसरे नाम का पहला अक्षर (हरफ) है। जिन अैन, सीन, काफ का अर्थ किसी मुसलमान को ज्ञात नहीं है। यह सतनाम सूक्ष्मवेद में लिखा है यानि ये दो नाम पूरे लिखे हैं तथा परमेश्वर कबीर जी ने स्वयं नबी रूप में प्रकट होकर अच्छी आत्माओं को (जिन्होंने उनके ज्ञान पर विश्वास किया यानि इमान लाए, उनको) दीक्षा में दिया है। वही नाम दास (रामपाल दास) को मेरे गुरूदेव जी ने दिया है जिसको दीक्षा में दास अपने अनुयाईयों को देता है। सारनाम इनसे भिन्न है। वह भी स्मरण करना होता है जो दीक्षा में दिया जाता है। अठासी हजार ऋषि तथा तेतीस करोड़ देवता:- अठासी हजार ऋषि तथा तेतीस करोड़देवता भी काल (ज्योति निरंजन) के नबी (संदेशवाहक) रहे हैं। इन्होंने भी वेदों व गीता को ठीक से न समझकर इनके विपरित अपना अनुभव बताया है। उसकी अठारह पुराण बनाई हैं तथा ग्यारह उपनिषद बनाए हैं जिनमें कुछ ठीक कुछ गलत ज्ञान भरा है।
श्री कृष्ण जी व श्री रामचन्द्र जी:- श्री विष्णु (सतगुण) ही श्री रामचन्द्र तथा श्री कृष्ण चन्द्र जी के रूप में जन्मा था जो काल ब्रह्म का पुत्रा है। जिस प्रकार नबी मुहम्मद जी को प्रेरित करके दुष्ट लोगों को ठीक करने के लिए लड़ाईयाँ करवाई, इसी प्रकार श्री विष्णु जी को प्रेरित करके कंस, केशी, चाणूर व हिरण्यकशिपु आदि-आदि दुष्ट व्यक्तियों का अंत करवाया। श्री विष्णु जी के कुल नौ (Nine) तथा चौबीस (Twenty Four) अवतार काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) के भेजे पृथ्वी पर जन्में माने गए हैं। एक अवतार अभी पृथ्वी पर आना शेष है। इनमें मुख्य श्री रामचन्द्र व श्री कृष्ण को माना जाता है। इन सब उपरोक्त काल के नबियों ने काल का साम्राज्य स्थापित किया है। रावण, कंस, केशी, चाणूर, शिशुपाल आदि को मारा जो जनता के लिए दुःखदाई थे। जिस कारण से सब जनता इन्हीं (श्री रामचन्द्र तथा श्री कृष्ण चन्द्र) को पूर्ण परमात्मा मानकर पूजने लगी। ये पूर्ण परमात्मा (कादर अल्लाह) नहीं हैं। यह काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) का फैलाया जाल है। जब तक ऊपर बताए तीनों नामों (कुरआन की सूरः अश् शूरा-42 आयत नं. 2 वाले अैन. सीन. काफ. जो गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ‘‘¬ तत् सत’’ कहे हैं) का जाप मुझ
(रामपाल दास) से दीक्षा लेकर नहीं किया जाएगा, तब तक जीव सतलोक वाली जन्नत (स्वर्ग) में सदा नहीं रह सकता। जन्म-मृत्यु व अन्य प्राणियों के शरीरों में कष्ट सदा बना रहेगा। नरक में भी कष्ट भोगना पड़ेगा। ऊपर मुसलमान धर्म की पूजा का वर्णन किया है। {रोजा, जकात, नमाज, अजान (बंग)} इनसे जन्नत के साथ बने पितर लोक में स्थान मिलता है। जन्म-मृत्यु का चक्र भी सदा बना रहेगा। हिन्दू धर्म में शास्त्रों में बताई साधना:- जैसा कि इस ‘‘मुसलमान नहीं समझे ज्ञान कुरआन’’ पुस्तक के प्रारंभ में बताया है कि जिस अल्लाह ने कुरआन का ज्ञान हजरत मुहम्मद जी को दिया, उसी ने ‘‘जबूर’’ का ज्ञान हजरत दाऊद जी को दिया। ‘‘तौरेत’’ का ज्ञान हजरत मूसा जी को तथा ‘‘इंजिल’’ का ज्ञान हजरत ईशा जी को दिया। उसी अल्लाह (काल ब्रह्म) ने इनसे पहले चारों वेदों का ज्ञान देवता ब्रह्मा जी को दिया। देवता ब्रह्मा जी ने अपनी संतान ऋषियों को दिया। चारों वेदों का ज्ञान सूक्ष्मवेद से चुना हुआ है। इनमें जितना ज्ञान है, वह सूक्ष्मवेद वाला है, परंतु अधूरा है। ऋषियों ने वेदों को पढ़ा, परंतु अर्थ ठीक से न समझ सके। जिस कारण से अपने आप अपनी बुद्धि अनुसार अर्थ करके साधना करने लगे तथा जनता को वही भ्रमित ज्ञान बताया। गलत अर्थ करके ऋषियों, देवताओं ने जो साधना की। उससे जो उपलब्धि हुई, उसके अठारह पुराण बना दिए। जब महाभारत का युद्ध होने जा रहा था, उस समय अर्जुन नामक योद्धा (पांडवों में से एक) युद्ध करने से मना कर देता है। यदि अर्जुन युद्ध करने से मना कर देता तो वह युद्ध नहीं होता। परंतु काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) यह युद्ध करवाना चाहता था। इस कारण से अर्जुन को अध्यात्म ज्ञान के द्वारा युद्ध के लिए तैयार करने लगा। परमेश्वर कबीर जी की शक्ति रूपी रिमोट (Remote) से अर्जुन प्रश्न पर प्रश्न करता गया। काल श्री कृष्ण में प्रवेश करके वेदों वाले ज्ञान से संक्षिप्त में उत्तर देता रहा। काल ने विचार किया कि अर्जुन को कुछ याद तो रहना नहीं। इसलिए वेदों वाला ज्ञान उसे बताया। जिस कारण से चारों वेदों वाला ज्ञान जो अठारह हजार श्लोकों में है, वह केवल सात सौ श्लोकों में सारांश रूप में बता दिया जिसको श्रीमद्भगवत गीता कहा जाता है। {परंतु शब्द आकाश का गुण है जो नष्ट नहीं होता। जिस कारण से वेद व्यास ऋषि (कृष्ण द्वैपायन) द्वारा दिव्य दृष्टि से जानकर महाभारत ग्रंथ में लिखा गया जो श्रीमद्भगवत गीता के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार कुरआन मजीद का ज्ञान हजरत मुहम्मद के माध्यम से काल ब्रह्म ने बोला। उसको अन्य मुसलमानों ने सुना और याद रखा। मुहम्मद जी की मृत्यु के कई वर्ष पश्चात् उन मुसलमानों से सुनकर लिखा गया था। कुछ आयतें पत्थरों के ऊपर खोदकर लिखी गई थी। सबको इकट्ठा करके पवित्रा कुरआन मजीद बनाई गई।} पूर्ण ब्रह्म (कादिर अल्लाह) कबीर जी ने अपनी शक्ति से काल ब्रह्म से वेद ज्ञान का सार बुलवाया। समर्थ उसी का नाम है जिसके समक्ष सब विवश हों। जो वह चाहे, वह करवा सके। श्रीमद्भगवत गीता वाला ज्ञान मानव (स्त्राी-पुरूष) के लिए वरदान है। भले ही यह अधूरा है। इसमें माँस खाने व अन्य व्यसन (तम्बाकू सेवन) करना, शराब आदि नशीले पदार्थ सेवन करने का प्रावधान नहीं है। काल ब्रह्म ने जैसे कुरआन में अपनी भक्ति (इबादत) करने को भी कहा है तथा अपने से अन्य सारी कायनात (सृष्टि) के पैदा करने वाले कबीर अल्लाह की भक्ति (इबादत) करने को कहा है। उस समर्थ की जानकारी किसी बाखबर (तत्त्वदर्शी) संत से जानने के लिए कहा है। कादर अल्लाह कबीर जी ने कुरआन ज्ञान देने वाले से भी यही बुलावाया है। इसी प्रकार गीता में भी उस परम अक्षर ब्रह्म (कादर अल्लाह) के विषय में ज्ञान तत्त्वदर्शी संत (बाखबर) से जानने के लिए कहा है। {जो भक्ति की पूजा की विधि बाईबल (जिसमें जबूर, तौरेत तथा इंजिल को इकठ्ठा जिल्द किया है, उस) में तथा कुरआन में काल ब्रह्म ने अपनी ओर से बताई है। वेदों और गीता वाले ज्ञान को दोहराना उचित नहीं समझा क्योंकि वह पहले बताया जा चुका था।} हिन्दू धर्म की पूजा:- हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) के सद्ग्रन्थों में, वेदों तथा गीता में भक्ति विधि स्वर्ग (स्वर्ग), महास्वर्ग (बड़ी जन्नत) में जाने की सही है, परंतु पूर्ण मोक्ष प्राप्ति की नहीं है।
जिस कारण से जन्म-मृत्यु का चक्र साधक का बना रहता है। वेदों व गीता वाली साधना एक ही है क्योंकि श्रीमद्भगवत गीता में वेदों वाला ही ज्ञान संक्षेप में कहा है। अधिकतर हिन्दू पितर पूजा, भूत पूजा आदि की करते हैं। देवताओं (शिव जी तथा विष्णु जी) की पूजा भी करते हैं। गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में गीता ज्ञान देने वाले प्रभु ने स्पष्ट किया है कि जो पितर पूजा करते हैं, वे पितर योनि प्राप्त करके पितर लोक में चले जाते हैं। भूत (प्रेत) पूजा करने वाले भूत बनकर भूतों में रहते हैं। कुछ शिव लोक में रहते हैं जो शिव जी के उपासक होते हैं। प्रत्येक देवता के लोक में पितर लोक है। उसी में भूत व गण तथा पितर रहते हैं। फिर इसी गीता के श्लोक (9/25) में बताया है कि जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे उसी देवता के लोक में चले जाते हैं। वहाँ भी पितर लोक में रहते हैं। पितर लोक ऐसा है जैसे अधिकारियों (Officers) की कोठियों से दूर नौकरों के निवास होते हैं। जो सुख-सुविधा अधिकारियों को होती है, वह नौकरों को नहीं होती। इसी प्रकार जन्नत में जो सुविधा मुख्य देवता की होती है, वह पितरों को नहीं होती। गीता ज्ञान दाता ने आगे इसी गीता के श्लोक (9/25) में बताया है कि जो मेरी पूजा (काल ब्रह्म की पूजा) करते हैं, वे मुझे प्राप्त होते हैं यानि ब्रह्मलोक में चले जाते हैं। गीता के अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट किया है कि जो ब्रह्मलोक (काल की बड़ी जन्नत) में चले जाते हैं। उनको वहाँ से पृथ्वी पर आना पड़ता है। उनका भी जन्म-मृत्यु का चक्र कभी समाप्त नहीं होता। गीता तथा वेदों में पूजा का वर्णन:- गीता अध्याय 3 श्लोक 10.15 में यज्ञ करने को कहा है। यज्ञ का अर्थ धार्मिक अनुष्ठान है। मुख्य यज्ञ पाँच हैं:- 1. धर्म यज्ञ, 2. ध्यान यज्ञ, 3. हवन यज्ञ, 4. प्रणाम यज्ञ, 5. ज्ञान यज्ञ। यज्ञों के करने का शास्त्रों में इस प्रकार वर्णन है:-
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