जैन धर्म बोध
एक समय महाबीर जैन वाला जीव यानि मारीचि वाला जीव राजा था। उसका एक विशेष नौकर था। राजा का मनोरंजन करने के लिए एक वाद्य यंत्र बजाने वाली पार्टी होती थी। राजा धुन सुनते-सुनते सो जाता तो वह तान बंद करा दी जाती थी। राजा अपने महल में पलंग पर लेटा-लेटा धुन सुना करता। अपने नौकर को कह रखा था कि जब मुझे नींद आ जाए तो बाजा बंद करा देना। एक दिन नौकर आनन्द मग्न होकर धुन सुनने में लीन हो गया। उसको पता नहीं चला कि राजा कब सो गए? शोर से राजा की निन्द्रा भंग हो गई। राजा जब उठा तो मंडली बाजा बजा रही थी। राजा को क्रोध आया। उस नौकर को दण्डित करने का आदेश सुना दिया कि इसने मेरे आदेश को अनसुना किया है। इसके कानों में काँच (glass) पिघलाकर गर्म-गर्म डालो। नौकर ने बहुत प्रार्थना की, क्षमा कर दो। आगे से कभी ऐसी गलती नहीं करूंगा, परंतु अहंकारवश राजा ने उसकी एक नहीं सुनी और सिपाहियों ने उस नौकर को पकड़कर जमीन पर लेटाकर दोनों कानों में पिघला हुआ गर्म काँच (शीशा) डाल दिया। नौकर की चीख हृदय विदारक थी। महीनों तक दर्द के मारे रोता रहा। समय आने पर राजा का देहान्त हुआ। फिर वही जीव महाबीर जैन रूप में जन्मा। घर त्यागकर जंगल में साधना करने लगा। उसी क्षेत्र में एक व्यक्ति अपनी गायों को घास चराने ले जाता था। दोनों में मित्रता हो गई। वह व्यक्ति गाँव से भोजन ले आता था, महाबीर जी को खिलाता था। एक दिन उस गौपाल को किसी कार्यवश घर जाना पड़ा तो उसने साधक से कहा कि मेरे को गाँव जाकर आना है। आप मेरी गायों का ध्यान रखना, कहीं गुम न हो जाऐं। महाबीर जी ने आश्वासन दिया कि आप निश्चिंत होकर जाओ, मैं ध्यान रखूंगा। महाबीर जी साधना करने लगे। उनको ध्यान नहीं रहा, गायें दूर जंगल में चली गई। जब वह ग्वाला आया और साधक से पूछा कि मेरी गायें कहाँ हैं? तो साधक निरूत्तर हो गए और कारण बताया कि मैं साधना में लगा था और ध्यान नहीं रहा। ग्वाले को पता था कि गौवें जंगल में गहरा जाने के पश्चात् जीवित नहीं बचती क्योंकि वहाँ शेर, चीते आदि खूंखार जानवर बहु सँख्या में रहते थे। अपने धन की हानि का कारण साधक को मानकर बाँस की लाठी को तोड़कर उससे पतली-पतली दो टुकड़ी छः-2 इंच लंबी (फाटकी) लेकर साधक को पकड़कर बलपूर्वक धरती के ऊपर गिराकर दोनों कानों में वे टुकड़ी ठोककर अंदर तोड़ दी। साधक बुरी तरह से चिल्लाता रहा। वह ग्वाला चला गया। फिर उधर कभी नहीं गया। एक महीने के पश्चात् दैव योग से एक वैद्य किसी औषधि की खोज करता-करता गया तो महाबीर जैन की पीड़ा का पता चला। उसने साधक के कानों से वे फाटकी निकाली तो लकड़ी की सली (बाँस के फटने से उसमें पतली-पतली सूई जैसी नुकीली सींख बन जाती हैं, उनको सली कहते हैं) कानों को चीरती हुई बाहर आई। रक्त व मवाद की पिचकारी लगी और साधक की किलकारी निकली यानि महावीर जी बुरी तरह चिल्लाए। वैद्य ने उपचार किया। कई महीनों में पीड़ा ठीक हुई, परंतु बहरे हो गए, मृत्यु हो गई। फिर अन्य जीवन भोगकर फिर महावीर जैन बने।
महाबीर जैन जी ने 363 पाखण्ड मत चलाए जो वर्तमान में जैन धर्म में पाखण्ड मत वाली साधना चल रही हैं।
इस कथा से शिक्षा मिलती है कि जो अपनी शक्ति का दुरूपयोग करके किसी को तंग करता है तो उसका बदला भी उसको कभी न कभी देना पड़ता है। इसलिए कभी अपनी शक्ति का दुरूपयोग न करें। अब ऋषभ देव जी की कथा सुनाता हूँ।
ऋषभ देव निवस्त्र रहने लगे क्योंकि उनको अपनी स्थिति का ज्ञान नहीं था। वे परमात्मा के वैराग्य में इतने मस्त थे कि उनको ध्यान ही नहीं था कि वे नंगे हैं। उनका ध्यान परमात्मा में रहता था। वर्तमान के जैनी महात्माओं ने वह नकल कर ली और नंगे रहने लगे। यह मात्र परंपरा का निर्वाह है।
ऋषभ देव जी अपने मुख में पत्थर का टुकड़ा लेकर नग्न अवस्था में कुटक के जंगलों में दिन-रात फिरते थे। एक बार बाँसों के आपस में घिसने से जंगल में अग्नि लग गई। दावानल इतनी भयंकर हुई कि सब जंगल जलकर राख हो गए। ऋषभ देव जी भी जलकर मर गए। ऋषभ देव जी का जीव ही बाबा आदम के रूप में जन्मा जो मुसलमानों, ईसाईयों तथा यहूदियों का प्रथम पुरूष तथा नबी माना जाता है।
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