कबीर सागर में 34वां अध्याय कमाल बोध पृष्ठ 1 पर है। कबीर सागर में कमाल बोध अधिकतर गलत लिखा है।
यथार्थ कमाल बोध:- किसी कबीले ने अपने 12 वर्षीय मृत लड़के का अंतिम संस्कार दरिया में जल प्रवाह करके कर दिया था। वह बहता हुआ जा रहा था। दिल्ली के राजा सिकंदर लोधी के गुरू शेखतकी को विश्वास दिलाने के लिए कबीर परमेश्वर जी ने उस मृत बालक को आशीर्वाद से जीवित कर दिया और कबीर जी ने अपने साथ रखा।
(विस्तृत कथा पढ़ें इसी पुस्तक में ‘‘कबीर चरित्र बोध’’ के सारांश में पृष्ठ 541 से 542 पर।)
मृत कमाल बालक को जीवित करना
कबीर जी तथा राजा सिकंदर शेखतकी तथा सर्व सेना को लेकर दिल्ली को चल पड़े। रास्ते में एक दरिया के किनारे पड़ाव किया। सुबह उठकर स्नान आदि कर रहे थे। सिकंदर लोधी उठकर पीर शेखतकी के टैण्ट में गए। शेखतकी को सलाम वालेकम की। शेख ने कोई उत्तर नहीं दिया। कई बार कहने पर कहा कि अब आपको काफिर गुरू मिल गया है। मुसलमान गुरू की क्या आवश्यकता है? उसको अपने हाथी पर चढ़ाकर लाए हैं, अपने टैण्ट में रखा है। मैं दिल्ली जाकर मुसलमानों को बोल दूँगा कि राजा सिकंदर मुसलमान नहीं रहा, इसने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है। बादशाह सिकंदर के पैरों के नीचे से पृथ्वी खिसकती महसूस हुई। कहा कि शेख जी! आप क्या चाहते हो? शेखतकी ने कहा कि कबीर मेरे सामने कोई मुर्दा जीवित करे तो मैं मानूँ। यह सब समस्या परमेश्वर कबीर जी को बताई गई। परमेश्वर कबीर जी ने राजा सिकंदर जी से कहा कि उस शेखतकी से कह दो, कोई मुर्दा ले आए। सिकंदर लोधी शीघ्र शेखतकी जी के टैण्ट में गया और कबीर जी की बात बताई कि कोई मुर्दा लाओ। कबीर जी कह रहे हैं कि जीवित कर दूँगा। शेखतकी ने कहा कि अब मैं किसे मारूँ। कभी कोई मरेगा, तब देख लेंगे। सिकंदर लोधी को फिर चिंता हो गई कि मुर्दा छः महीने नहीं मिला तो मेरा राजपाट चैपट कर देगा। कबीर जी तो जानीजान हैं। सिकंदर के अंदर की चिन्ता समझ गए। परमेश्वर कबीर जी को पता था कि शेखतकी ने तो मानना नहीं है, परंतु राजा को हृदय घात (भ्मंतज ।जजंबा) हो जाएगा। उसी समय एक लगभग 12 वर्ष के बच्चे का शव दरिया में बहता हुआ आता दिखाई दिया जिसको अंतिम संस्कार के रूप में जल प्रवाह कर दिया गया था। उसी समय शेखतकी भी आ गया। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे शेखतकी जी! पहले आप कोशिश करो मुर्दे को जीवित करने की, कहीं बाद में कहो कि मैं भी कर देता। सब उपस्थित सैनिकों ने कहा कि ठीक कह रहे हैं, आप भी संत होने का दावा कर रहे हो, आप भी मुर्दा जीवित करके दिखाओ। शेखतकी ने अपना जंत्र-मंत्र किया, सब व्यर्थ रहा। फिर परमेश्वर कबीर जी बारी आई, तब तक मुर्दा दो फर्लांग यानि एक कि.मी. दूर जा चुका था। परमेश्वर कबीर जी ने हाथ के संकेत से मुर्दे को वापिस बुलाया। शव नदी के पानी के बहाव के विपरीत आया और सामने आकर स्थिर हो गया। लहरें नीचे-नीचे उछल रही थी। पानी नीचे से बह रहा था, मुर्दा स्थिर था। तब परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे जीवात्मा, जहाँ भी है, कबीर के आदेश से आओ और इस बालक के शरीर में प्रवेश करके बाहर आओ। उसी समय शव में कंपन हुई और बालक दरिया के पानी से बाहर आया। कबीर जी को दण्डवत् प्रणाम किया। सब उपस्थित व्यक्तियों ने कहा कि कबीर जी ने कमाल कर दिया, कमाल कर दिया। लड़के का नाम कमाल रखा और कबीर जी ने अपने साथ रखा। बच्चे की तरह पालन किया तथा भक्ति रंग में रंगा। ज्ञान समझाया। कमाल दास परमेश्वर कबीर जी की बहुत सेवा करता था। उसको अपनी सेवा का अभिमान हो गया था। कबीर परमेश्वर जी के सामने ही कहता था कि मेरे जैसी सेवा गुरूदेव की कोई नहीं कर सकता। कबीर परमेश्वर जी से ज्ञान सुनकर कमाल जी को अपने वक्तापन का भी गर्व हो गया था। कुछ ज्ञानहीन संगत भी कमाल जी की प्रसंशा करने लगी थी। कहते थे कि कमाल तो गुरू जी से भी अच्छा सत्संग करता है। कमाल को गुरू जी से भी अधिक मानने लगे थे। परमेश्वर कबीर जी बार-बार कहते थे कि:-
कबीर, गुरू को तजै भजै जो आना। ता पशुवा को फोकट ज्ञाना।।
परंतु फिर भी बुद्धि पर पत्थर पड़े थे। जब भक्त को अभिमान हो जाता है और गुरू जी से अपने को उत्तम समझता है या कोई मर्यादा भंग करता है तो उसका नाम भंग हो जाता है। उसके पश्चात् वह सब उल्टा ही करता चला जाता है और अंत में काल से प्रेरित होकर गुरू जी को त्यागकर चला जाता है। या तो किसी अन्य काल के दूत संत को गुरू बनाता है या स्वयं गुरू बनकर भोली जनता को काल के मुख में डालता है, स्वयं भी नरक का भागी बनता है।
परमेश्वर कबीर जी ने कमाल दास जी के अभिमान को भंग करने के लिए एक लीला की। जैसे अर्जुन को अभिमान हो गया था कि मेरे जैसा सेवक श्री कृष्ण जी का कोई नहीं है। अर्जुन के अभिमान को भंग करने के लिए श्री कृष्ण जी ने एक लीला की थी। श्री कृष्ण जी अर्जुन को साथ लेकर राजा मोरध्वज के पास गए, उनके बाग में जाकर ठहरे। दोनों ने संत वेशभूषा पहन रखी थी। श्री कृष्ण जी ने माया से उत्पन्न करके एक सिंह अपने साथ ले रखा था। राजा मोरध्वज श्री कृष्ण जी का शिष्य था। राजा ने अपने पुत्र ताम्रध्वज का राजतिलक करना था यानि अपना उत्तराधिकारी राजा नियुक्त करना था। उस उपलक्ष्य में एक धर्मयज्ञ का आयोजन किया था। उस दिन श्री कृष्ण जी ने अपना स्वरूप बदला था। जिस कारण से मोरध्वज तथा परिवार पहचान नहीं सका था। राजा ने दोनों संतों को खाने के लिए प्रार्थना की तो श्री कृष्ण जी ने कहा कि पहले हमारे शेर (सिंह) को भोजन कराओ, यह मनुष्य का माँस खाता है। एक विशेष बात यह है कि जो इस सिंह का आहार बनेगा, वह स्वर्ग को प्राप्त होगा। यह संत का वचन है। सुनो! किसी पल्लेदार मजदूर को मत पकड़ लाना। आज यह आपके परिवार के किसी सदस्य का माँस खाएगा। पहले राजा ने अपनी पत्नी तथा पुत्र से कहा कि पुत्र राज करे और इसकी माँ बच्चे का ध्यान रखे। मैं संतों के सिंह का भोजन बनूँगा। रानी ने कहा कि मैं पतिव्रता स्त्राी हूँ। पति की मृत्यु से पहले मैं मरूँगी, सिंह का भोजन बनूँगी। लड़के ने कहा कि मैंने माता-पिता की सेवा नहीं की। यदि आप दोनों में से एक भी मर जाएगा तो मेरा पुत्र का कर्तव्य पूरा न होने से मैं पाप का भागी बनूँगा। इसलिए मैं आपके जीवन की रक्षा करके अपना पुत्र का फर्ज पूरा करके उज्जवल मुख से परमात्मा के दरबार में जाऊँगा। अंत में श्री कृष्ण जी ने फैसला किया कि ताम्रध्वज लड़के को आप दोनों पति-पत्नी बीचों-बीच काटकर दो भाग कर दो। बायां भाग फैंक देना, केवल दांया भाग ही शेर खाएगा। बायां भाग पवित्र नहीं है। उसी समय राजा तथा रानी ने लकड़ी काटने का आरा मँगाया और दोनों जनों ने अपने पुत्रा को आरे से चीरना शुरू कर दिया। संत वेश में श्री कृष्ण जी ने यह भी चेतावनी दी थी कि यदि आप तीनों में से किसी की आँखों में आँसू आ गए तो भी शेर भोजन नहीं खाएगा। पति-पत्नी ने बच्चे को बैठाकर सिर के ऊपर आरा रखकर चीरना शुरू कर दिया। राजा-रानी रोए नहीं, पत्थर जैसा दिल कर लिया। लड़के की आँखों में आँसू आ गए, तब तक लड़के को दो भाग कर दिया गया। श्री कृष्ण जी ने कहा कि ताम्रध्वज की आँखों में आँसू आ गए हैं। इनकी सच्ची श्रद्धा नहीं है। इसलिए हम तथा शेर खाना नहीं खाऐंगे, हम रूष्ट होकर जा रहे हैं। लड़के के शरीर से आवाज आई कि हे भगवन! आप तो अंतर्यामी हैं, दिल में बैठकर जान सकते हैं कि मैं क्यों रोया हूँ। मैं इसलिए रोया हूँ कि मैं पापी हूँ, मेरा सारा शरीर भी आपकी सेवा के योग्य नहीं है। बड़ी कठिनाई से यह अवसर मिला था आपकी सेवा में शरीर सौंपने का। श्री कृष्ण जी ने कहा था कि जो आज इस मुहूर्त में सिंह के लिए शरीर भोजन रूप में दान करेगा, वह सीधा स्वर्ग जाएगा। तीनों प्राणियों की कोशिश थी कि मेरा नंबर लगे। तीनों जन कह रहे थे कि मेरा शरीर ले लो, दूसरा कह रहा था मेरा शरीर ले लो। उस बीच में श्री कृष्ण जी ने निर्णय किया था कि लड़के ताम्रध्वज का शरीर सिंह खाएगा। तब लड़के का नम्बर लगा था। इसलिए ताम्रध्वज ने कहा था कि बड़ी मुश्किल से तो शरीर दान करने का दाॅव लगा था। मेरा शरीर आधा ही आपके काम आया, मेरे को आधा लाभ मिलेगा। उसी समय श्री कृष्ण जी प्रसन्न हुए तथा लड़के के शरीर से आरा निकालकर उसको जीवित कर दिया और तीनों को स्वर्ग का अधिकारी बनाया। यह लीला देखकर अर्जुन मारे शर्म के पानी-पानी हो गया तथा कहा हे भगवन! मैं तो मान बैठा था कि आपका मेरे जैसा सेवक कोई नहीं है। मैं तो इनके बलिदान के सामने कुछ भी नहीं हूँ। इसी प्रकार परमेश्वर कबीर जी ने कमाल जी को समझाना चाहा था।
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