परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को सत्यज्ञान समझाकर तथा सत्यलोक में ले जाकर अपना परिचय देकर धर्मदास जी के विशेष विनय करने पर उनको दीक्षा मंत्र दे दिये। प्रथम मंत्र में कमलों के देवताओं के जो जाप मंत्र हैं, वे दिए जाते हैं। धर्मदास जी उन देवों को ईष्ट रूप में पहले ही मानता था, पंरतु अब ज्ञान हो गया था कि ये इष्ट रूप में पूज्य तो नहीं हैं, परंतु साधना का एक अंग हैं। धर्मदास की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उसने अपने परिवार का कल्याण करना चाहा। धर्मदास जी के साथ उनकी पत्नी आमिनी देवी दीक्षा ले चुकी थी। केवल इकलौता पुत्र नारायण दास ही दीक्षा बिना रहता था। धर्मदास जी ने परमात्मा कबीर जी से अपने पुत्र नारायण दास को शरण में लेने के लिए प्रार्थना की।
‘‘धर्मदास वचन‘‘
हे प्रभु तुम जीवन के मूला। मेटेउ मोर सकल तन सूला।।
आहि नरायण पुत्र हमारा। सौंपहु ताहि शब्द टकसारा।।
इतना सुनत सदगुरू हँसि दीन्हा। भाव प्रगट बाहर नहिं कीन्हा।।
भावार्थ :- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रार्थना की कि हे प्रभु जी! आप सर्व प्राणियों के मालिक हैं। मेरे दिल का एक सूल यानि काँटे का दर्द दूर करें। मेरा पुत्रा नारायण दास है।
उसको भी टकसार शब्द यानि वास्तविक मोक्ष मंत्र देने की कृपा करें। जब तक नारायण दास आपकी शरण में नहीं आता। तब तक मेरे मन में सूल (काँटे) जैसा दर्द बना है। धर्मदास जी की बात सुनकर परमात्मा अंदर ही अंदर हँसे। हँसी को बाहर प्रकट नहीं किया।
कारण यह था कि परमेश्वर कबीर जी तो जानीजान हैं, अंतर्यामी हैं। उनको पता था कि काल का मुख्य दूत मृत्यु अंधा ही नारायण दास रूप में धर्मदास के घर पुत्र रूप में जन्मा है।
‘‘कबीर परमेश्वर वचन‘‘
धर्मदास तुम बोलाव तुरन्ता। जेहिको जानहु तुम शुद्धअन्ता।।
धर्मदास तब सबहिं बुलावा। आय खसम के चरण टिकावा।।
चरण गहो समरथ के आई। बहुरि न भव जल जन्मो भाई।।
इतना सुनत बहुत जिव आये। धाय चरण सतगुरू लपटाये।।
यक नहिं आये दास नरायन। बहुतक आय परे गुरू पायन।।
धर्मदास सोच मन कीन्हा। काहे न आयो पुत्र परबीना।।
भावार्थ :- कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! अपने पुत्र को भी बुला ले और जो कोई आपका मित्र या निकटवासी है, उनको भी बुला लो, सबको एक-साथ दीक्षा दे दूँगा। धर्मदास जी ने नारायण दास तथा अन्य आस-पड़ोस के स्त्री-पुरूषों से कहा कि परमात्मा आए हैं, दीक्षा लेकर अपना कल्याण कराओ। फिर यह अवसर हाथ नहीं आएगा। यह बात सुनकर आसपास के बहुत से जीव आ गए, परंतु नारायण दास नहीं आया। धर्मदास जी को चिंता हुई कि मेरा पुत्र क्यों नहीं आया? वह तो बड़ा प्रवीन है। तीक्ष्ण बुद्धि वाला है। धर्मदास जी ने अपने नौकर तथा नौकरानियों से कहा कि मेरे पुत्र नारायण दास को बुलाकर लाओ। नौकरों ने देखा कि वह गीता पढ़ रहा था और आने से मना कर दिया।
‘‘नारायण दास वचन‘‘
हम नहिं जायँ पिता के पासा। वृद्ध भये सकलौ बुद्धि नाशा।।
हरिसम कर्ता और कहँ आहि। ताको छोड़ जपैं हम काही।।
वृद्ध भये जुलाहा मन भावा। हम मन गुरू विठलेश्वर पावा।।
काहि कहौं कछु कहो न जाई। मोर पिता गया बौराई।।
भावार्थ :- नारायण दास ने नौकरों से कहा कि मैं पिताजी के पास नहीं जाऊँगा। वृद्धावस्था (बुढ़ापे) में उनकी बुद्धि का पूर्ण रूप से नाश हो गया है। हरि (श्री विष्णु जी) के समान और कौन कर्ता है जिसे छोड़कर हम अन्य किसकी भक्ति करें? पिता जी को वृद्ध अवस्था में जुलाहा मन बसा लिया है। मैंने तो बिठलेश्वर यानि बिट्ठल भगवान (श्री कृष्ण जी) को गुरू मान लिया है। क्या कहूँ?
किसके सामने कहने लायक नहीं रहा हूँ। मेरे पिताजी पागल हो गए हैं।
नौकरों ने जो-जो बातें नारायण ने कही थी, धर्मदास जी को सुनाई। धर्मदास जी स्वयं नारायण दास को बुलाने गए और कहा कि हे पुत्र! आप चलो सतपुरूष आए हैं। चरणों में गिरकर विनती करो। अपना कल्याण कराओ। बेटा! फिर ऐसा अवसर हाथ नहीं आएगा। हे भोले बेटा! यह हठ छोड़ दे।
‘‘नारायण दास वचन‘‘
तुम तो पिता गये बौराई। तीजे पन जिंदा गुरू पाई।।
राम कृष्ण सम न देवा। जाकी ऋषि मुनि लावहिं सेवा।।
गुरू बिठलेश्वर छांडेउ दीता। वृद्ध भये जिंदा गुरू कीता।।
भावार्थ :- नारायण दास ने कहा कि पिता जी! आप तो पागल हो गए हो। तीजेपन यानि जीवन के तीसरे पड़ाव को पार कर चुके हो। 75 वर्ष तक के जीवन को तीसरा पड़ाव कहते हैं। आपने जिन्दा बाबा (मुसलमान संत) गुरू बना लिया। राम जी के समान अन्य कोई प्रभु नहीं है। जिसकी सेवा (पूजा) सब ऋषि-मुनि करते रहे हैं।
क्रमशः......
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