जाप का अर्थ है मन्त्र अथार्त नाम का जाप करना। नाम की दीक्षा तत्वदर्शी सन्त देता है, उस का जाप करना ‘ नामजाप’ कहा जाता है। यह दो प्रकार से किया जाता है:- जाप तथा अजपा।
जाप जो जिव्हा से उच्चारण किया जाता है, वह जाप कहा जाता है। जाप करने का ‘नाम’ शास्त्रानुकूल अर्थात् शास्त्र प्रमाणित होना ही लाभप्रद है। शास्त्रों में कौन-से नाम जाप के कहे हैं, वे जानना अनिवार्य है। भक्ति के लिए प्रमाणित शास्त्र तीन ही हैं:- प्रथम चारों वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद दुसरा इन्हीं चारों वेदों का सारांश श्री मद्भगवत गीता तीसरा सूक्ष्म वेद ।
वेद चार और गीता में कौन से मन्त्र जाप करने का निर्देश है पहले चार वेद: यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 में कहा है कि ‘ओम्’ नाम का जाप कार्य करते-करते स्मरण कर, विशेष कसक के साथ स्मरण कर तथा मनुष्य जन्म का मूल कर्तव्य जानकर स्मरण कर। श्री मद्भगवत गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने बताया है कि
ओम् इति एकाक्षरम् ब्रह्म व्यवहारन् माम अनुस्मरण,
यः प्रयाति तजन देहम् सः याति परमाम् गतिम्।।
अनुवाद: मुझ ब्रह्म का ओम् (ऊँ) यह एक अक्षर है, उच्चारण करके स्मरण करता हुआ जो शरीर त्यागकर जाता है, वह ऊँ के जप से मिलने वाली परमगति को प्राप्त होता है। गीता के अन्दर जाप करने का केवल एक नाम ओम् (ऊँ) है। यह ब्रह्म का जाप है। ऊँ के जप से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
यह ऊँ से होने वाली परम गति है। यही प्रमाण श्री देवी पुराण गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी से सातवें स्कंद के पृष्ठ 562-563 पर श्री देवीजी दुर्गा जी ने राजा हिमालय से कहा था कि मेरी पूजा सहित अन्य सब पूजाओं को त्यागकर केवल एक ओम् (ऊँ) नाम का जप कर, ब्रह्म प्राप्ति का उद्देश्य रखकर ऊँ का जप कर जिससे उस ब्रह्म को प्राप्त हो जाएगा। वह ब्रह्म दिव्याकाश में ब्रह्म लोक में रहता है। तू ब्रह्म लोक में चला जाएगा।
याद रखें पुराणों में कुछ वेद ज्ञान है और अधिक किसी ऋषि, देवी, देवता का अपना अनुभव है। पुराणों का जो ज्ञान वेद या गीता से मिलता है, वह ज्ञान व भक्ति साधना का ज्ञान सही है। जो मेल नहीं खाता, वह व्यर्थ है। उसको हमने ग्रहण नहीं करना है। उपरोक्त कथन से स्पष्ट हुआ कि ऊँ नाम के जाप से ब्रह्म लोक प्राप्ति होती है क्योंकि ओम् (ऊँ) नाम ब्रह्म का जाप मन्त्र है।
श्री मद्भगवत गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक प्रयन्त सर्व लोक पुन्रावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्म लोक में गए साधक भी पुनः लौटकर संसार में आते हैं, उनका भी जन्म-मृत्यु सदा बना रहता है। अध्यात्म के अन्दर मुख्य भूमिका तीन देवताओं रजगुण श्री ब्रह्मा जी, सत्गुण श्री विष्णु जी तथा तमगुण श्री शिवजी की है। इसके साथ-साथ श्री गणेश जी तथा श्री देवी जी की भी भूमिका है क्योंकि यह पाँचों शक्तियाँ अन्य देवताओं तथा गणों में प्रधान है।
इन सर्व का स्थान मानव शरीर में बने कमल चक्रों से है। जैसे मूल कमल चक्र में गणेश जी, स्वाद चक्र में सावित्राी व ब्रह्मा जी, नाभि चक्र में लक्ष्मी-विष्णु जी, हृदय कमल में शिवजी व पार्वती जी तथा कण्ठ कमल में श्री देवी जी का वास है। इसलिए इनकी साधना भी अनिवार्य है। इनके अतिरिक्त तीन प्रभु हैं जो आध्यात्म के खम्ब हैं।
1क्षर पुरुष...... यह 21 ब्रह्माण्डों का प्रभु है, एक ब्रह्माण्ड में पूर्वोक्त देवी व देवता अपने-अपने विभाग के प्रधान हैं। जैसे श्री ब्रह्मा जी रजोगुण विभाग के, श्री विष्णु जी सतोगुण विभाग के तथा श्री शिवजी तमोगुण विभाग के मंत्री हैं। एक ब्रह्माण्ड के 14 लोकों के अतिरिक्त तीन लोक पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक तथा पाताल लोक हैं। इन पर ही इन तीनों देवताओं का आधिपत्य है।
श्री शिवजी के लोक में ही श्री गणेश जी का अलग लोक है, वहाँ पर शिवजी के गण रहते हैं। उनका प्रधान श्री गणेश जी है। श्री देवी जी 14 लोकों तथा इन तीनों लोकों पर भी स्वामीनी है। ब्रह्म ने दुर्गा जी को एक ब्रह्माण्ड की प्रधान शक्ति बनाया है। स्वयं अव्यक्त रहता है। किसी के समझ में नहीं आता। प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 ब्रह्म की प्रभुता 21 ब्रह्माण्डों पर है। इसी को क्षर पुरुष कहा है।
2- अक्षर पुरुष.....यह 7 संख ब्रह्माण्डों का स्वामी है। इसकी हमारे अध्यात्म मार्ग में बहुत कम तथा बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए अक्षर पुरुष के नाम मन्त्र का जाप करना अनिवाय है। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर पुनः संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर ने सर्व ब्रह्माण्डों की रचना की है, केवल उसी की पूजा करो। (गीता अध्याय 15 श्लोक 4)
गीता अध्याय 15 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि हे भारत! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा शाश्वत् स्थान (अमर लोक) को प्राप्त होगा। हमारे आध्यात्म मार्ग में विशेषकर दो प्रभुओं का महत्व है। प्रथम तो क्षर पुरुष (ब्रह्मकाल) का क्योंकि हम इसके लोक में फँसे हैं और हमने तीसरे प्रभु पर अक्षर पुरुष के लोक में जाना है जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर पुनः संसार में कभी नहीं आते।
3- परम अक्षर ब्रह्म.........यह कुल का मालिक है। यह असंख्य ब्रह्माण्डों का प्रभु है। यह क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष का भी स्वामी है। हम साधकों को क्षर पुरुष के लोक से निकलकर परम अक्षर पुरुष के लोक में जाने के लिए साधना करनी है। क्षर पुरुष अक्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष का प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 तथा अध्याय 8 श्लोक 3 में है। पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी पुनः नहीं आता, शास्त्रोक्त साधना करनी होती है।
श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके क्षर पुरुष (ब्रह्म) ने कहा है। गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक जरा (वृद्धावस्था) तथा मरण से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करते हैं अर्थात् केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए ही साधना करते हैं, वे तत् ब्रह्म से सब कर्मों से तथा सम्पूर्ण अध्यात्म से परीचित हैं। (गीता अध्याय 7 श्लोक 29) गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि ‘‘तत् ब्रह्म’’ क्या है उस का उत्तर गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में दिया। बताया कि वह ‘परम अक्षर ब्रह्म’ है।
गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष दो प्रभु बताए हैं। ये दोनों तथा इनके लोकों में जितने शरीरधारी प्राणी हैं, वे सब नाशवान हैं। जीवात्मा तो किसी की नहीं मरती। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरुष अर्थात् पुरुषोत्तम तो उपरोक्त श्लोक 18 में कहे क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष से अन्य ही है। उसी को ‘परमात्मा’ कहा गया। वहीं परमात्मा तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है, वह अविनाशी परमात्मा है। यह परम अक्षर ब्रह्म है।
नर सुनि रे मूढ गंवारा, राम भजन तत् सारा!
राम भजन बिन बैल बनैगा, शूकर श्वान शरीरं!
कउवा खर की देह धरैगा, मिटै न याह तकसीरं!
कीट पतंग भवंग होत हैं, गीदड़ जंबक जूंनी!
बिनाभजन जड़ बिरछ कीजिये,पद बिन कायासूंनी!
भक्तिबिना नर खर एकहैं,जिन हरिपद नहीं जान्या!
पार ब्रह्म की परख नहीं रे, पूजि मूये पाषानां!
थावर जंगम में जगदीशं,व्यापक पूरन ब्रह्मबिनांनी!
निरालंब न्यारा नहीं दरसै, भुगतैं चार्यौं खांनी!
तोल न मोल उजन नहींआवै,असथरि आनंद रूपं!
घट मठ महतत सेती न्यारा, सोहं सति सरूपं!
बादल छांह ओस का पानी, तेरा यौह उनमाना!
हाटि पटण क्रितम सब झूठा,रिंचक सुख लिपटांना!
नराकार निरभै निरबांनी, सुरति निरति निरतावै!
आत्मराम अतीत पुरुष कूं, गरीबदास यौं पावै!
शास्त्रानुकूल साधना से ही मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। आज पुरे विश्व में शाशत्रानुकुल साधना केवल संत रामपाल जी महाराज ही बताते है।
आप सभी से विनम्र निवेदन है
अधिक जानकारी के लिए प्रतिदिन अवश्य देखें संत रामपाल जी महाराज के मगंल प्रवचन साधना टीवी चैनल पर 07:30 से 8:30 तक
#TrueWorship_Message
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#SaintRampalJi #SatlokAshram । बन्दी छोड़ गरीब दास जी महाराज इतनी सपष्टता से वो भेद बताते है , जिस भेद से इस जीव को वास्तविक मोक्ष प्राप्त होता है ।
गरीब, सोहं शब्द सही मिलै मन बौरा रे,
आगै भेद अपार समझ मन बौरा रे ।।
सोहं नाम को परमात्मा कबीर साहेब , गुरु नानक देव जी महाराज , संत रविदास जी महाराज , संत गरीब दास महाराज , आदि संतों ने बहुत महत्व दिया है । प्रन्तु केवल सोहं नाम से मोक्ष नहीं है इस से आगे अपार भेद सारनाम का है । पर पूर्ण और अधिकारी संत से सतनाम प्राप्त करके इस सोहं की कमाई से जीव सारनाम योग्य बनता है जीव को नादान संतों ने नकली नाम और मंत्र जाप में उलझा दिया। अब संत रामपाल जी महाराज अपने सत्संग और पुस्तक के माध्यम से भक्ति मार्ग पर समर्पित जीव आत्मा को जगा रहे हैं ।
प्रन्तु अब इतना पड़ने और समझाने के बाद भी अगर ये बुद्धि नहीं सरकती तो उनके लिय कहा है
गरीब , सुवटा पड़ै सुभानगति , अन्दर नहीं विचार ।।
और आगे बन्दी छोड़ बताते है कि इस हमारे ज्ञान से और सत भक्ति के लाभ से दो तरह के जीव वंचित्त रह जाते है ।
गरीब , चातुर प्राणी चोर है , मूढ़ मुग्ध है ठोठ ।
संतों के नहीं काम के , उनको दियो गलजोट ।।
एक तो वो चतुर प्राणी है जो दुर्भाग्यवश गुरू बन बैठे अब अभिमान वश जानबूझ कर नहीं मान रहे और दूसरे वो भोले श्रधालू है जो उन नकलियो कै फस गये और उनके नकली ज्ञान ने अब उनकी बुद्धि इस लायक छोडी हीं नहीं के वो इस तत्व भेद को समझ सके और उनकी आत्मा में ये प्रेरणा हो सके ।।
गरीब , गलघोटा गुरूवा घने , फाँसी दे अड़ाय ।
मारत है मैदान में , छल बल बहुत बनाय ।।
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