#अनुभूति___मिराबाई_की
हे री मैं तो प्रेम-दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय।
दरद की मारी बन बन डोलूं बैद मिल्यो नही कोई॥
ना मैं जानू आरती वन्दन, ना पूजा की रीत।
लिए री मैंने दो नैनो के दीपक लिए संजोये॥
घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय।
जौहरि की गति जौहरी जाणै की जिन जौहर होय॥
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस बिध होय।
सुन मंडल मे सेज पिया की, मिलणा किस बिध होय।
दरद की मारी बन-बन डोलूं बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी जद बैद सांवरिया होय॥
मेवाड़ की रानी मीराबाई संत शिरोयणी रविदास जी की शिष्या थी। उनकी सखि सहेलियाँ गुरु रविदास जी पर नाक-मुँह चढाती थी। वे मीराबाई को ताने देती थी कि आप खुद शाही महलों में रहती हैं। पर आपके गुरु जूते गाँठकर बड़ी मुश्किल से गुज़ारा करते हैं।
मीराबाई को इस बात का बहुत दुख हुआ। उनके ह्रदय में सतगुरु रविदास जी के लिए सच्चा प्रेम और आदर था। उनकी समझ मे नही आ रहा था कि वे करें तो क्या करें। अंत में एक दिन उन्होंने हीरों के डिब्बे में से एक कीमती हीरा निकाला ताकि गुरु रविदास जी को दे सकें, जिसे बेचकर उन्हें काफी धन मिल सकता था।
मीराबाई हीरा लेकर गुरु रविदास जी के पास चली गयी। उन्होंने माथा टेक कर और हाथ जोड़कर अर्ज़ की।
गुरु जी ! मुझे आपकी गरीबी देखकर बहुत दुख होता है और लोग मुझे ताने देते हैं कि तेरा गुरु इतना गरीब है। आप यह हीरा स्वीकार कर लें ताकि आप सुख की ज़िंदगी गुज़ार सकें।
रविदास जी उसी तरह जूते गाँठते हुए बोले ! बेटी, मुझे जो कुछ मिला है, कुंड के पानी और जूते गाँठते हुए मिला है। अगर तुझे लोकलाज का डर है तो घर में बैठकर ही भजन सुमिरन कर लिया कर, मेरे पास आने की कोई ज़रूरत नही। यह हीरा मेरे किसी काम का नही। चाहे मुझे लोग गरीब समझते हैं पर मुझे गरीबी में ही आनंद है। मुझे दुनिया की किसी नाशवान वस्तु की ज़रूरत नही है।
मीराबाई हर हाल में गुरु रविदास जी को हीरा देना चाहती थी। वह बहुत देर तक मिन्नत करती रहीं, पर गुरु जी ने एक न सुनी। अंत में निराश होकर मीराबाई कहने लगी, मैं हीरा आपकी कुटिया की छत में छोड़े जाती हूँ। जब ज़रूरत पड़े तब आप निकाल लेना ताकि आपके जीवन सुखमय हो जाये।
ऐसी पीड़ा हमने जानी नहीं। यह हमारा अनुभव नहीं है। तो हम कैसे समझ पायेगे? हम अपने आप को नहीं समझ पाते है। स्वभावत है हम उतना ही समझ पाते हैं जितना हमारा अनुभव है। अनुभव से ज्यादा हमारी समझ नही होती है। न ही हो सकती है।
हम सागर के पास भी चले जाये तो उतना ही ला पायेगे जितना बड़ा हमारा पात्र है। सागर कितना ही बड़ा है, हमारे पास पात्र ही बहुत छोटा है, तो उतना ही भरकर लायेगे। हम वही खोज सकते है जिसका हमे अतीत में अनुभव हुआ है। हम उसी को फिर फिर सम्हालने लगोगे जिसकी हमे स्मृति है। लेकिन जिसकी स्मृति नहीं, अनुभव नहीं, जो हमारी सोच से परे हो वह हमारे पास भी खडा हो, तो भी हम चूक जायेगे।
इसी तरह तो हम परमात्मा से चूक रहे हैं। परमात्मा दूर नहीं है। दूर कैसे हो सकता है? हमारी श्वास श्वास में वही है। हमारी धड़कन—धड़कन में वही है। वही धड़कता है। क्योंकि वही जीवन है। वही जीवन का आधार है। सब तरफ से उसने ही हमारा घेरा है। बाहर भी और भीतर भी!
फिर भी हम पूछते हो: परमात्मा कहां है? हमारा पूछना सिर्फ इतना ही बताता है कि हमे कुछ भी बोध नहीं है। हमे कुछ भी जीवन का अनुभव नहीं हुआ है। जीवन का अनुभव होता, हम न पूछते कि परमात्मा कहां है। उसी अनुभव में परमात्मा भी पहचान में आ जाता है।
मीरा बाई ने अपने अन्दर परमात्मा पाने का दर्द महशुश हुआ। उसे परमात्मा से प्यार था। परमात्मा पाने की धुन थी। हर समय परमात्मा के बारे मे सोचती थी। मीरा बाई कहती है कि एक घायल का दर्द घायल जानता है या फिर कभी उसी प्रकार घायल हुआ हो, वह उसकी स्थिति को जानता है। मीरा बाई केवल परमात्मा के प्रेम की दिवानी थी। उसने कभी भी अपना सुख नही मांगा।
मीरा बाई ने प्रेम जाना। मीरा बाई ने प्रेमरस मे जीवन जाना। मीरा बाई की कुछ भी चाहते नही थी। कहने को वह मेवाड की रानी थी। परन्तु भीतर परमात्मा प्राप्ति के सिवाय कोई होश नहीं था। हम अपने घर सम्पदा वैभवता स्वास्थ्य के बारे मे ही सोचते है। आज मीरा बाई का नाम भक्तिरस से सबसे अग्रणिय है।
प्रसंग
एक रास्ते पर दो व्यक्ति चले जा रहे थे। बाजार मे बहुत भीड थी। विवाह शादीयों के सीजन समय मे बाजार मे भारी शोरगुल होता है। दुकानो पर ग्राहको की लम्बी कतार लगी थी। ग्राहक मोल भाव कर रहे थे। मानो बाजार मे मेला सा लगा हो। अच्छी खासी रौनक थी।
तभी दूर पहाड़ पर बने हुए मंदिर की घंटियां बजने लगीं। एक उनमें से ठिठक कर खड़ा हो गया। सिर झुका कर मन्दिर की तरफ प्रणाम किया। दूसरे ने पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने कहा कि तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता, मंदिर की घंटियां बज रही हैं? कितनी प्यारी घंटियां! उस दूसरे आदमी ने कहा कि हद्द हो गई! इस बाजार के शोरगुल में कहां मंदिर की घंटियां तुम्हें सुनाई पड़ीं, कैसे तुम्हें सुनाई पड़ीं?
यहां तो कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा है। मुझे तो कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा है। तुमने सुना मंदिर की घंटियां बजती हुईं इस भरे बाजार में, यह असंभव मालूम होता है। उस पहले व्यक्ति ने अपने खीसे से एक रुपया निकाला और जोर से रास्ते पर गिरा दिया। उसकी खननखन की आवाज और कोई बीस आदमी एकदम दौड़ पड़े और उन्होंने कहा: किसी का रुपया गिर गया!
उस पहले आदमी ने कहा: देखा! इस भरे बाजार में, इस भीड़ में रुपये की आवाज बीस आदमियों को एकदम सुनाई पड़ गई! मंदिर की घंटियां सुनाई नहीं पड़ रही हैं।
सारांश हमे वही सुनाई पड़ता है जो हमे समझ में आता है। जो हमे अच्छा लगता है। ये जो लोग इकट्ठे हुए हैं, रुपये की आवाज के अतिरिक्त इनके जीवन में दूसरा कोई संगीत नहीं है। तो भरी बाजार, आवाज, शोरगुल; लेकिन एक छोटे से रुपये के गिरने की आवाज इन्हें तत्क्षण सुनाई पड़ गई।
. शास्त्रानुकूल साधना से ही मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।आज पुरे विश्व में शाशत्रानुकुल साधना केवल संत रामपाल जी महाराज ही बताते है।आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें। अपना जीवन सफल बनाएं। आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए।
मराठी न्यूज चैनल लोकशाही पर प्रतिदिन सुबह 6:00से7:00बजे
श्रधा चैनल पर प्रतिदिन दोपहर 2:00से 3:00 बजे
साधना चैनल पर प्रतिदिन शाम 7:30 से 8.30 बजे
ईश्वर चैनल पर प्रतिदिन रात 8:30 से 9:30 बजे
सत साहिब जी
Comments
Post a Comment