भक्त को चाहिए कि भक्ति-साधना तथा मर्यादा का पालन अन्तिम श्वांस तक करे। जैसे शूरवीर युद्ध के मैदान में या तो मार देता है या स्वयं वीरगति को प्राप्त हो जाता है। वह पीछे कदम नहीं हटाता। संत तथा भक्त का रणक्षेत्र भक्ति मन्त्र जाप तथा मर्यादा है। जो शिष्य गुरू से विमुख हो जाता है। नाम खण्डित कर देता है तो स्वाभाविक ही वह गुरू में कुछ दोष निकालेगा। जिस कारण से नरक में अग्नि कुण्ड में गिरेगा। यदि गुरू विमुख होकर भक्ति छोड़ देता है तो उसको भी बहुत हानि होती है।
उदाहरणः- जैसे इन्वर्टर को चार्जिंग पर लगा रखा है, वह चार्ज हो रहा है। यदि बीच में चार्जर निकाल लिया जाए तो वह इन्वर्टर जितना चार्ज हो गया था, उतनी देर लाभ देगा। फिर अचानक सर्व सुविधाऐं बंद हो जाएंगी। इसी प्रकार उस शिष्य की दशा जानें। गुरू शरण में रहकर मर्यादा में रहते हुए जितने दिन भक्ति की वह शक्ति आत्मा में जमा हो गई, उतनी आत्मा चार्ज हो गई। जिस दिन गुरू जी से विमुख हो गया, उसी दिन से भक्ति की शक्ति आनी बंद हो जाती है। यदि गुरू विमुख (गुरू से विरोध करके गुरू त्याग देना) होकर भी उसी गुरू द्वारा बताई गई साधना मन्त्रा आदि करता है तो कोई लाभ नहीं होता। जैसे बिजली का कनैक्शन कट जाने के पश्चात् पंखे, मोटर, बल्ब के स्विच (बटन) दबाते रहो, न पंखा चलेगा, न बल्ब जलेगा। यही दशा गुरू विमुख साधक की होगी। फिर नरक का भागी होगा।
कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि :-
कबीर, मानुष जन्म पाकर खोवै,
सतगुरू विमुखा युग-युग रोवै।
कबीर, गुरू विमुख जीव कतहु न बचै।
अग्नि कुण्ड में जर-बर नाचै।।
कोटि जन्म विषधर को पावै।
विष ज्वाला सही जन्म गमावै।।
बिष्ट (टट्टी) मांही क्रमि जन्म धरई।
कोटि जन्म नरक ही परही।।
भावार्थ :- गुरू को त्याग देने वाला जीव बिल्कुल नहीं बचेगा। नरक स्थान पर अग्नि के कुण्डों में जल-बल (उबल-उबल) कर कष्ट पाएगा। वहाँ अग्नि के कष्ट से नाचेगा यानि उछल-उछलकर अग्नि में गिरेगा। फिर करोड़ों जन्म विषधर (सर्प) की जूनी (शरीर) प्राप्त करेगा। सर्प के अपने अन्दर के विष की गर्मी बहुत परेशान करती है। गर्मी के मौसम में सर्प उस विष की उष्णता से बचने के लिए शीतलता प्राप्त करने के लिए चन्दन वृक्ष के ऊपर लिपटे रहते हैं। फिर वही गुरू विमुख यानि गुरू द्रोही बिष्टा (टट्टी-गुह) में कीड़े का जन्म प्राप्त करता है। इस प्रकार गुरू से दूर गया प्राणी महाकष्ट उठाता है। यदि गुरू नकली है तो उसको त्यागकर पूर्ण गुरू की शरण में चले जाने से कोई पाप नहीं लगता।
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