अनुराग सागर पृष्ठ 3 से 5 तक का सारांश :-
पृष्ठ 3 से :- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रश्न किया :-
प्रश्न :- प्रभु! दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर में कैसी आस्था होनी चाहिए?
उत्तर :- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि जैसे मृग (हिरण) शब्द पर आसक्त होता है, वैसे साधक परमात्मा के प्रति लग्न लगावै।
हिरण (मृग) पकड़ने वाला एक यंत्र से विशेष शब्द करता है जो हिरण को अत्यंत पसंद होता है। जब वह शब्द बजाया जाता है तो हिरण उस ओर चल पड़ता है और शिकारी जो शब्द कर रहा होता है, उसके सामने बैठकर मुख जमीन पर रखकर समर्पित हो जाता है। अपने जीवन को दॉव पर लगा देता है। इसी प्रकार उपदेशी को परमात्मा के प्रति समर्पित होना चाहिए। अपना जीवन न्यौछावर कर देना चाहिए।
दूसरा उदाहरण :-
पतंग (पंख वाला कीड़ा) को प्रकाश बहुत प्रिय है। अपनी प्रिय वस्तु को प्राप्त करने के लिए वह दीपक, मोमबत्ती, बिजली की गर्म लाईट के ऊपर आसक्त होकर उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से उसके ऊपर गिर जाता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार भक्त को परमात्मा प्राप्ति के लिए मर-मिटना चाहिए। समाज की परंपरागत साधना को तथा अन्य शास्त्र विरूद्ध रीति-रिवाजों को त्यागने तथा सत्य साधना करने में कठिनाईयां आती हैं। उनका सामना करना चाहिए चाहे कुछ भी कुर्बानी देनी पड़े, पीछे नहीं हटे।
तीसरा उदाहरण :-
पुराने समय में पत्नी से पहले यदि पति की मृत्यु हो जाती थी तो पत्नी अपने पति से इतना प्रेम करती थी कि वह अपने मृत पति के साथ उसी चिता में जलकर मर जाती थी। उस समय घर तथा कुल के व्यक्ति समझाते थे कि तेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। इनका आपके बिना कौन पालन करेगा? चाचे-ताऊ किसी के बच्चों को नहीं पालते। जब तक माता-पिता होते हैं, तब तक कुल के व्यक्ति प्यार की औपचारिकता करते हैं। वास्तव में प्रेम तो अपनों में ही होता है। आप इन छोटे-छोटे बच्चों की ओर देखो। बच्चे पिता के वियोग में रो रहे होते हैं। माता का पल्लु पकड़ रोकते हैं।
उस स्त्री को उसके स्वर्ण के आभूषण भी दिखाए जाते हैं। देख इनका क्या होगा? कितने सुंदर तथा बहुमुल्य आभूषण हैं। आप अपने बच्चों में रहो। परंतु वह स्त्री प्रेमवश होकर उसी चिता में जिंदा जलकर मर जाती थी। पीछे कदम नहीं हटाती थी। पहले तो इस प्रकार सती होती थी।
कोई एक-दो ही होती थी। बाद में यह रीति-रिवाज कुल की मर्यादा का रूप ले गई थी। पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री को जबरन उसी चिता में जलाया जाने लगा था जिससे सती प्रथा का जन्म हुआ। बाद में यह संघर्ष के पश्चात् समाप्त हो गई।
इस कथा का सारांश है कि जैसे एक पत्नी अपने पति के वैराग्य में जिंदा जलकर मर जाती है। मुख से राम-राम कहकर चिता में जल जाती है।
जगत में जीवन दिन-चार का, कोई सदा नहीं रहे। यह विचार पति संग चालि कोई कुछ कहै।।
हे धर्मदास! इसी प्रकार भक्त का विचार होना चाहिए।
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