◆धर्मदास वचन
होप्रभु तुम्ह सतपुरुष कृपाला। अन्तर्यामी दीन दयाला।।
मोहि निश्चय तुवपद् विश्वासा। यह माया स्वप्नेकी आशा॥
जिन्ह जिन्ह माया नेह बढाया। तिन्ह २ निज २ जन्म गँवाया।।
सवालाख तुम मोहि बतायो। सवा करोड प्रभु आरति लायो।
औ जन सम्पति मोर घरआही।
अरपों सभे संतन जो चाही।।
तुम प्रभु निःइच्छा नहिं चाहो। धन्य समरथ मर्याद दिढाहो॥
सो जिव पाँवर नरके जायी। शक्ति अक्षत जो राखु छिपायी।।
हो प्रभु कछु विनती अनुसारूं। बक्सहु ढिठाई तो वचन उचारूं।।
सवाशेर भाषहु मिष्टाना। औरौ वस्तु सवासो पाना।।
हो प्रभु कोई जिव भिक्षुक होई। भीख माँगि तन पाले सोई॥
सो जिव शब्द तोहार न जाने। कहहु केहि विधि लोक पयानै॥
◆ सतगुरू वचन
हो धर्मनि जौ अस जिव होई। गुरू निज ओर करै पुनि सोई॥
इतने विनु जिव रोकि न राखा। छोरी बन्ध नाम तिहि भाखा॥
◆ धर्मदास वचन
धन्य धन्य तुम दीन दयाला। दया सिन्धु दुखहरण कृपाला।।
छन्द - तुम धन्य सद्गुरु जीव रक्षक कालमर्दन नाम हो॥
शुभ पन्थ भक्ति दिढायऊ प्रभु अमर सुखके धाम हो॥
मैं सुदिन आपन तबहिं जान्यो प्रथमपद् जब देखेऊं॥
अव भयेऊँ सुखी निशङ्क यमते सुफल जीवन लेखेऊं॥
दोहा - विनती एक करौं प्रभु , कृपा करहु जगदीश॥
दो सेवक जो तुम मिले, सो तो कहुँ नहिं दीश॥
◆सतगुरू वचन
सोरठा - धर्मदास लेहु जानि, हम वो एके थान है॥
कदौ शब्द परमान, वो हम में उन माँहि हम॥
◆ज्ञानप्रकाश◆
◆धर्मदास वचन- चौपाई
हो प्रभुउन मोहिं बड़ सुख दीन्हा। तुम भये गुप्त राखि उन्ह लीन्हा॥
विरह सिन्धु बूड़त उन्ह राखा। उन्ह दरशनकी हे अभिलाखा।।
◆ सतगुरू वचन
हो धर्मनि हम माँहि उन्ह देखो।उन्ह मोहिं द्वितियभावजनिलेखो।।
स्वामा सेवक एके प्र ना। परिचे सुरति नाहिं विलगाना।।
हो धर्मनि तुमहूँ इम माहीं। मोहिं तोहि अब अन्तर नाहीं।।
जो सेवक गुरू सुरति खमीरा। जीवन मुक्ति सो आहि कबीरा॥
जेहि सेवक गुरुही परशंसा। कहै कबार सो निर्मल हंसा॥
सेवक कहँ अस चाहिये भाई। गुरुहि रिझावे आपु गंवाई॥
जिमि नटकला मगन होय खेला। तिमि गुरुभक्ति मगन होय चेला।।
जितनमन सुख स्वाद गंवावे। मन वच कर्म गुरु सेवा लावै॥
निशिवासर सेवा चित देई। गुरुहिं रिझाय परम पद लेई॥
जगपहँ सेवावश भगवाना। धर्मदास यह वचन प्रमाना।।
सेवक सुरति प्रीति वश भाई। शून्य महा वस्ती होय जाई॥
तैसी प्रीति सुरति शुचि सेवा। किमि प्रसन्न नहिं होहिं गुरुदेवा।।
धर्मनि सो सेवक मोहिं भावे। जो गुरु साधु सेवा चित लावै॥
सेवा करि नहिं धरै हकारा। रहे अधीन दास सोइ प्यारा॥
हाधर्मनि तुम्ह अससिख अहहू।
हम तुम्ह एकसाँच हियगहहू॥
◆धर्मदास वचन
धर्मदास पद गहे अनुरागा। होप्रभु तम्ह सोहि कीन्ह सुभागा॥
मैं पामर गुणहीन कुचाली। तुम्ह दीन्हेउ मोहि पन्थमराली॥
हे प्रभु नहि रसना प्रभुताई।अमित रसनगुणवरणि नहिजाई॥
महिमा अमित अहे हो स्वामी। केहि विधि वर्णों अन्तर्यामी॥
जेहि सेवक पर होय तव दाया। ताके हृदय बुद्धि अस आया।
पूरण भाग करे सेवकाई। धन्यसेवक जिन्ह गुरुहि रिझाई॥
मैं सब विधि अयोग्य अविचारी। मोहि अधमहिं तुम लीन्द उबारी॥
भावार्थ :- यह फोटोकॉपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 53 और 54 की है। पृष्ठ 53-54 दोनों का भावार्थ इस प्रकार है :-
परमेश्वर कबीर जी धर्मदास जी को पहले कई बार अन्य रूप में मिले थे। धर्मदास जी की अरूचि देखकर अंतर्ध्यान हो जाते थे। बीच में धर्मदास जी को अन्य रूप में मिले थे। तब धर्मदास जी ने कहा था कि मुझे एक संत मिले थे। वे भी आप वाला ज्ञान ही सुनाते थे। उन्होंने मेरे को बहुत सुख दिया। जब आप मुझे छोड़कर चले जाते थे, मैं रोता रहता था। उस संत ने मुझे सांत्वना दी तथा अमर पुरूष तथा अमर लोक की कथा सुनाई। तब परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! हम दोनों ही उस काशी वाले कबीर जुलाहे के सेवक हैं। हम एक ही गुरू के शिष्य हैं। इसलिए हम वही ज्ञान प्रचार करते हैं जो हमारे गुरू कबीर
जी ने हमें बताया है। धर्मदास ने कहा कि हे साहिब! आपने बताया कि आप तथा वह एक गुरू के शिष्य हैं। आपका ऐसा ज्ञान है तो आप जी के गुरू जी का ज्ञान कितना उत्तम होगा।
मैं आपके सतगुरू जी के दर्शन करना चाहता हूँ। परमेश्वर जी ने पृष्ठ 54 पर यह भी बताया है कि शिष्य की आस्था गुरू के प्रति कैसी होनी चाहिए?
◆बोधसागर◆
अब यह दया करो सुखदाई। दोउ सेवक कै दरशन पाई॥
बड़ इच्छा उन्द दरशन केरा। हो प्रभु हम आही तुव चेरा।।
◆ सतगुरू वचन
सुनु धर्म निदरशन तिन्द पैहौ। लीला देखि थकित होइ जैहौ।।
आप तीनरूप प्रकट दिखावा। एक तीन होय एक समावा॥
धरमदास अचरज ह्वै रहेऊ। समिता होय युगल पद गहेऊ॥
लीला देखि चकित भये दासा। पुनि विनती एक कीन्द प्रगासा॥
◆ धर्मदास वचन
हे प्रभु अविगति कला तुम्हारी। हम हैं कीट जीव व्यभिचारी॥
सत्यलोक तुम्ह वरणि सुनावा। सोभा पुरुष हंसन सतभावा॥
कैसन देश राज वह आही। चित इच्छा प्रभु देखन ताही।।
◆ सतगुरू वचन
धर्मदास यह निरधिन काया। यदितन पुरुष दरश किमि पाया।।
तन ठीका जब पुरि है आई। सत्यलोक तब देखहु जाई।।
◆ धर्मदास वचन
धर्मदास गहि चरण निहोरा। हे प्रभु तृषा मिटावहु मोरा॥
चरण टेकि प्रभु विनवौं तोही। पुरुष दरश विनुकल नहिं मोही।।
कबीर साहिब का फिर अंतर्ध्यान हो जाना और धर्मदास साहब का विफल होना
गुप्त भये प्रभु अविगति ताता। धर्मदास मुख आवै न बाता॥
◆ धर्मदास विलाप
मैं मतिहीनकुमति मुडिलागा। मोहिसमको जग आहि अभागा॥
मैं मूरख प्रतीति न कीन्हा । अस साहेब कहें मैं नहिं चीन्हा॥
अब कोने विधि दरशन पाऊँ। दरशन विनु मैं प्राण गवाऊँ॥
चरणोदक विन करौं न ग्रासा। तजौ शरीर कहै धर्मदासा॥
दिवस सात लगि भन्न न खावा। भजन अखण्ड नाम लौलावा।।
भावार्थ :- यह फोटोकॉपी कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 55 की है। प्रभु कबीर जी धर्मदास के समक्ष तीनों रूप में प्रकट हुए तथा कहा कि यह तीनों रूप मेरे ही हैं। काशी वाले कबीर के रूप में दोनों समा गए। एक कबीर रूप बन गए। धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से सत्यलोक तथा परमात्मा को देखने की विनय की तो परमेश्वर जी ने कहा कि यह मानव शरीर विकारों से भरा है। इसमें कैसे परमात्मा देखा जा सकता है? आप दीक्षा लो, भक्ति करो। जब शरीर समाप्त होने का ठीक का (निर्धारित) समय आएगा, तब सत्यलोक में परमात्मा को जाकर देखना। धर्मदास जी अधिक हठ करने लगा तो परमात्मा अन्तर्ध्यान हो गए। धर्मदास जी ने सात दिन तक अन्न नहीं खाया तथा प्रथम
मंत्र का निरंतर जाप किया।
क्रमशः_______________
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