‘‘ऋषि रामानन्द, सेऊ, सम्मन तथा नेकी व कमाली के पूर्व जन्मों का ज्ञान’’
ऋषि रामानन्द जी का जीव सत्ययुग में विद्याधर ब्राह्मण था जिसे परमेश्वर सत्य सुकृत नाम से मिले थे। त्रेता युग में वह वेदविज्ञ नामक ऋषि था जिसको परमेश्वर मुनिन्द्र नाम से शिशु रूप में प्राप्त हुए थे तथा कमाली वाली आत्मा सत्य युग में विद्याधर की पत्नी दीपिका थी। त्रेता युग में सूर्या नाम की वेदविज्ञ ऋषि की पत्नी थी। उस समय इन्होनें परमेश्वर को पुत्रवत् पाला तथा प्यार किया था। उसी पुण्य के कारण ये आत्माएँ परमात्मा को चाहने वाली थी।
कलयुग में भी इनका परमेश्वर के प्रति अटूट विश्वास था। ऋषि रामानन्द व कमाली वाली आत्माएँ ही सत्ययुग में ब्राह्मण विद्याधर तथा ब्राह्मणी दीपीका वाली आत्माएँ थी जिन्हें ससुराल
से आते समय कबीर परमेश्वर एक तालाब में कमल के फूल पर शिशु रूप में मिले थे। यही आत्माएँ त्रेता युग में (वेदविज्ञ तथा सूर्या) ऋषि दम्पति थे। जिन्हें परमेश्वर शिशु रूप में प्राप्त
हुए थे। सम्मन तथा नेकी वाली आत्माएँ द्वापर युग में कालू वाल्मीकि तथा उसकी पत्नी गोदावरी थी। जिन्होंने द्वापर युग में परमेश्वर कबीर जी का शिशु रूप में लालन-पालन किया था। उसी पुण्य के फल स्वरूप परमेश्वर ने उन्हें अपनी शरण में लिया था। सेऊ (शिव) वाली आत्मा द्वापर में ही एक गंगेश्वर नामक ब्राह्मण का पुत्र गणेश था। जिसने अपने पिता के घोर
विरोध के पश्चात् भी मेरे उपदेश को नहीं त्यागा था तथा गंगेश्वर ब्राह्मण वाली आत्मा कलयुग में शेख तकी बना। वह द्वापर युग से ही परमेश्वर का विरोधी था। गंगेश्वर वाली आत्मा शेख
तकी को काल ब्रह्म ने फिर से प्रेरित किया। जिस कारण से शेख तकी (गंगेश्वर) परमेश्वर कबीर जी का शत्रु बना। भक्त श्री कालू तथा गोदावरी का गणेश माता-पिता तुल्य सम्मान करता
था। रो-2 कर कहता था काश आज मेरा जन्म आप (वाल्मीकि) के घर होता। मेरे (पालक) माता-पिता (कालू तथा गोदावरी) भी गणेश से पुत्रवत् प्यार करते थे। उनका मोह भी उस
बालक में अत्यधिक हो गया था। इसी कारण से वे फिर से उसी गणेश वाली आत्मा अर्थात् सेऊ के माता-पिता (नेकी तथा सम्मन) बने। सम्मन की आत्मा ही नौशेरवाँ शहर में नौशेरखाँ राजा बना। फिर बलख बुखारे का बादशाह अब्राहिम अधम सुलतान हुआ तब उसको पुनः भक्ति पर
लगाया।
◆ पारख के अंग की वाणी नं. 428-455, 461-464, 473-477 :-
महके बदन खुलास कर, सुनि स्वामी प्रबीन।
दास गरीब मनी मरै, मैं आजिज आधीन।।428।।
मैं अबिगत गति सें परै, च्यारि बेद सें दूर।
दास गरीब दशौं दिशा, सकल सिंध भरपूर।।429।।
सकल सिंध भरपूर हूं, खालिक हमरा नाम।
दासगरीब अजाति हूं, तैं जूं कह्या बलि जांव।।430।।
जाति पाति मेरै नहीं, बस्ती है बिन थाम।
दासगरीब अनिन गति, तन मेरा बिन चाम।।431।।
नाद बिंद मेरे नहीं, नहीं गुदा नहीं गात। दासगरीब शब्द सजा, नहीं किसी का साथ।।432।।
सब संगी बिछरू नहीं, आदि अंत बहु जांहि।
दासगरीब सकल बसूं, बाहर भीतर मांहि।।433।।
ए स्वामी सृष्टा मैं, सृष्टि हमारै तीर। दास गरीब अधर बसूं, अबिगत सत्य कबीर।।434।।
अनंत कोटि सलिता बहैं, अनंत कोटि गिरि ऊंच।
दास गरीब सदा रहूं, नहीं हमारै कूंच।।435।।
पौहमी धरणि आकाश में, मैं व्यापक सब ठौर।
दास गरीब न दूसरा, हम समतुल नहीं और।।436।।
मैं सतगुरु मैं दास हूँ, मैं हंसा मैं बंस। दास गरीब दयाल मैं, मैं ही करूं पाप बिध्वंस।।437।।
ममता माया हम रची, काल जाल सब जीव।
दास गरीब प्राणपद, हम दासातन पीव।।438।।
हम दासन के दास हैं, करता पुरुष करीम।
दासगरीब अवधूत हम, हम ब्रह्मचारी सीम।।439।।
सुनि रामानंद राम मैं, मैं बावन नरसिंह। दास गरीब सर्व कला, मैं ही व्यापक सरबंग।।440।।
हमसे लक्ष्मण हनुमंत हैं, हमसे रावण राम।
दास गरीब सती कला, सबै हमारे काम।।441।।
हम मौला सब मुलक में, मुलक हमारै मांहि।
दास गरीब दयाल हम, हम दूसर कछु नांहि।।442।।
ताना बाना बीनहूं, पूरण पेटै सूत।
दास गरीब नली फिरै, दम खोजैं अनभूत।।443।।
दम खोजैं देही तजैं, श्वास उश्वास गुंजार।
दास गरीब समोयले, उलटि अपूठा तार।।444।।
हम चरखा हम कातनी, हमहीं कातनहार।
दास गरीब तीजंन पर्या, हम ताकू ततसार।।445।।
हमहीं बाड़ी बंनि बंनैं, हमैं बिनौला जाति।
दास गरीब चंद सूर हम, हमहीं दिबस अरु रात।।446।।
हम से हीं इंद्र कुबेर हैं, ब्रह्मा बिष्णु महेश।
दास गरीब धरम ध्वजा, धरणि रसातल शेष।।447।।
हम से हीं बरन बिनांन हैं, हम से हीं जम कुबेर।
दास गरीब हरि होत हम, हम कंचन सुमेर।।448।।
हम मोती मुक्ताहलं, हम दरिया दरबेश। दास गरीब हम नित रहैं, हम उठि जात हमेश।।449।।
हमहीं लाल गुलाल हैं, हम पारस पद सार।
दास गरीब अदालतं, हम राजा संसार।।450।।
हम से ही पानी हम पवन हैं, हम से हीं धरणि अकाश।
दास गरीब तत्त्व पंच में, हमहीं शब्द निबास।।451।।
हम पारिंग हम सुरति हैं, हम नलकी हम नाद।
दास गरीब नगन मगन, हम बिरक्त हम साध।।452।।
सुनि स्वामी सति भाखहूं, झूठ न हमरै रिंच।
दास गरीब हम रूप बिन, और सकल प्रपंच।।453।।
हम मुक्ता हम नहीं बंध में, हम ख्याली खुसाल।
दास गरीब सब सृष्टि में, टोहत हैं हंस लाल।। 454।।
हम रोवत हैं सृष्टि कूं, सृष्टि रोवती मोहि।
दासगरीब बिजोग कूं, बूझै और न कोय।।455।।
सतगुण रजगुण तमगुणं, रज बीरज हम कीन।
गरीबदास सब सकल शिर, हमैं दुनी हम दीन।।461।।
हम भिक्षुक कंगाल कुल, हम दाता अबदाल।
गरीब दास मैं मागिहूं, मैं देऊं नघ माल।।462।।
माल ताल सरबर भरे, संख असंखौं गंज।
गरीब दास एक रती बिन, लेन न देऊं अंज।।463।।
जेता अंजन आंजिये, चिसम्यौं में चमकंत।
गरीब दास हरि भक्ति बिन, माल बाल ज्यूं जंत।।464।।
गगन सुंन गुप्त रहूं, हम प्रगट प्रवाह। गरीबदास घट घट बसूं, बिकट हमारी राह।।473।।
आवत जात न दीखहूं, रहता सकल समीप।
गरीबदास जल तरंग हूं, हमही सायर सीप।।474।।
मैं मुरजीवा आदि का, नघ माणिक ल्यावंत।
गरीबदास सर समंद में, गोता गैब लगंत।।475।।
गोता लाऊं स्वर्ग सैं, फिरि पैठूं पाताल। गरीबदास ढूंढत फिरूं, हीरे माणिक लाल।।476।।
इस दरिया कंकर बहुत, लाल कहीं कहीं ठाव।
गरीबदास माणिक चुगैं, हम मुरजीवा नांव।।477।।
क्रमशः________________
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