नामदेव जी की भक्ति-श्रद्धा से मंदिर घुमाना’’
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‘‘नामदेव जी की भक्ति-श्रद्धा से मंदिर घुमाना’’
गाँव पुण्डरपुर में बीठल भगवान का मंदिर था। उसमें सुबह तथा शाम को आरती होती थी। उस समय छूआछात अधिक थी। एक दिन नामदेव जी मंदिर के पास से बने रास्ते पर जा रहे थे। मंदिर में आरती चल रही थी। पंडितजन हाथों में घंटियाँ तथा खड़ताल लेकर बजा रहे थे। नामदेव जी को भी धुन चढ़ गई। उसने अपनी जूतियाँ हाथों में ली और उनको
एक-दूसरी से मारने लगा और मंदिर में पहुँच गया। पंडितों के बीच से भगवान बिठल जी की मूर्ति के सामने खड़ा हो गया। पंडितों ने देखा कि नामदेव ने अपवित्र जूतियाँ हाथ में ले रखी हैं। मंदिर में प्रवेश कर गया है। मंदिर अपवित्र हो गया है। भगवान बिठल रूष्ट हो गए तो अनर्थ हो जाएगा। नामदेव जी को खैंचकर (घसीटकर) मंदिर के पीछे डाल दिया। भक्त नामदेव जी पृथ्वी पर गिरे-गिरे भी जूतियाँ पीट रहे थे, आरती गा रहे थे। उसी क्षण मंदिर का मुख नामदेव जी की ओर घूम गया। पंडितजन मंदिर के पीछे खड़े-खड़े घंटियाँ बजा रहे थे। करिश्मा देखकर घंटियाँ बजाना बंद करके स्तब्ध रह गए। उस मंदिर का मुख सदा उस ओर रहा। गाँव तथा दूर देश के व्यक्ति भी यह चमत्कार देखने आए थे।
भक्त नामदेव जी की भक्ति की प्रसिद्धि आग की तरह सारे क्षेत्र में फैल गई।
‘‘नामदेव जी को अवंका की नसीहत’’
एक दिन नामदेव भक्त रंका जी की झोंपड़ी पर गया। उनकी लड़की अवंका घर पर अकेली थी। माता-पिता लकड़ी लाने जंगल में गए हुए थे। लड़की अवंका औषधि घिस रही
थी। नामदेव ने पूछा कि बहन जी! यह औषधि किसके लिए बना रहे हो? भक्तमति अवंका ने कहा कि नामदेव! आप गुरूदेव को अधिक कष्ट ना दो। गुरू जी के हाथों को चोट लगी है। भाई उस दिन आपको क्या पड़ी थी मंदिर में जाने की? आपकी भक्ति की रक्षा करने के लिए, आपकी इज्जत रखने के लिए गुरू जी ने उस मंदिर को घुमाया था। जिस कारण से गुरू जी के हाथों को चोट लगी है। उनके लिए यह पट्टी तैयार कर रही हूँ। तीन दिन हो गए हैं। मैं पट्टी बाँधकर आती हूँ। नामदेव! गुरू जी को मत सता। यह कहकर अवंका जी की आँखें भर आई। नामदेव को विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि किसी ने गुरू जी को वहाँ नहीं देखा था, न नामदेव जी ने गुरू जी को वहाँ देखा। नामदेव जी भी अवंका जी के साथ गुरू जी के आश्रम में गए। देखा तो वास्तव में गुरू जी के दोनों हाथ जख्मी थे। नामदेव जी ने समझ रखा था कि उस दिन उस देवल (देवालय यानि मंदिर) को बिठल (विष्णु) जी ने घुमाया था। अपनी आँखों देखकर भी नामदेव जी की शंका समाप्त नहीं हुई।
उसने पूछा कि हे गुरूदेव! आपके हाथों को क्या लगा है? गुरू जी ने कहा कि नामदेव! बेटी अवंका ने बताया था। उस पर विश्वास नहीं हुआ। ले तेरी एक जूती मैं उठाकर लाया था। नामदेव जी की एक जूती वहाँ गुम हो गई थी। बहुत खोजने पर भी नहीं मिली थी। नामदेव जी तुरंत परमेश्वर के चरणों में गिर गए और आगे से कभी किसी मंदिर में न जाने की प्रतिज्ञा की और समर्पित होकर मर्यादा में रहकर भक्ति करने लगे। इससे पहले परमेश्वर कबीर जी ने नामदेव को केवल "ॐ" नाम का जाप करने को दे रखा था। नामदेव जी भी पहले इसी नाम का जाप किया करते थे। उसका कोई लाभ नहीं होना था। उससे पहले भी नामदेव जी ओम् (ॐ) नाम का जाप बिना गुरू बनाए किया करते थे।
कबीर, गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन दोनों निष्फल है, पूछो वेद पुराण।।
फिर नामदेव जी को ‘सोहं’ गुप्त मंत्र दिया था जिसका आविष्कार केवल परमेश्वर कबीर जी ही करते थे। अन्य को इस मंत्र का ज्ञान नहीं था। इसकी गवाही ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 95 मंत्रा 1 भी देता है। लिखा है कि ‘‘परमेश्वर पृथ्वी पर प्रकट होकर विचरण करके अपनी वाक (वाणी) द्वारा भक्ति की प्रेरणा करता है। भक्ति के गुप्त मंत्रों का आविष्कार करता है।’’
संत गरीबदास जी को भी परमेश्वर कबीर जी एक सतगुरू रूप में जिंदा बाबा के रूप में मिले थे। जो यह अमृतवाणी आज हमें प्राप्त है, यह परमेश्वर जी की ही देन है। संत
गरीबदास जी का ज्ञानयोग तथा दिव्य दृष्टि परमेश्वर कबीर जी ने खोल दी थी। जिस कारण से संत गरीबदास जी को भूत तथा भविष्य की घटनाओं का यथार्थ ज्ञान था।
उन्होंने कहा था कि :-
गरीब, नामा छीपा ॐ तारी, पीछे सोहं भेद बिचारी।
सार शब्द पाया जब लोई, आवागमन बहुर ना होई।।
क्रमशः____
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