दास की परिभाषा‘‘

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‘‘दास की परिभाषा‘‘ एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा कि:-  दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।। सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था। मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी न

मृत्यु के साथ रिश्ते भी खत्म




                                                  ;मृत्यु के साथ रिश्ते नाते सब खत्म-----  


 एक बार देवर्षि नारद अपने शिष्य तुम्बरू के साथ कहीं जा रहे थे । गर्मियों के दिन थे । एक प्याऊ से उन्होंने पानी पिया और पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे । इतने में एक कसाई वहाँ से 25-30 बकरों को लेकर गुजरा ।
उसमें से एक बकरा एक दुकान पर चढ़कर मोठ खाने लपक पड़ा । उस दुकान पर नाम लिखा था – ‘शगालचंद सेठ।’ दुकानदार का बकरे पर ध्यान जाते ही उसने बकरे के कान पकड़कर दो-चार घूँसे मार दिये ।
बकरा ‘मै,मै ,मै ’ करने लगा और उसके मुँह में से सारे मोठ गिर पड़े ।
फिर कसाई को बकरा पकड़ाते हुए कहाः “जब इस बकरे को तू हलाल करेगा तो इसकी मुंडी मेरे को देना क्योंकि यह मेरे मोठ खा गया है ।
”देवर्षि नारद ने जरा-सा ध्यान लगाकर देखा और जोर-से हँस पड़े । तुम्बरू पूछने लगाः “गुरुजी ! आप क्यों हँसे ?
उस बकरे को जब घूँसे पड़ रहे थे तब तो आप दुःखी हो गये थे, किंतु ध्यान करने के बाद आप हँस पड़े । इसमें क्या रहस्य है ? ”नारद जी ने कहाः “छोड़ो भी…. यह तो सब कर्मों का फल है, छोड़ो । ”“नहीं गुरुजी ! कृपा करके बताइये ।
इस दुकान पर जो नाम लिखा है ‘शगालचंद सेठ’ – वह शगालचंद सेठ स्वयं यह बकरा होकर आया है । यह दुकानदार शगालचंद सेठ का ही पुत्र है । सेठ मरकर बकरा हुआ है और इस दुकान से अना पुराना सम्बन्ध समझकर इस पर मोठ खाने गया ।
उसके बेटे ने ही उसको मारकर भगा दिया । मैंने देखा कि 30 बकरों में से कोई दुकान पर नहीं गया फिर यह क्यों गया कमबख्त ? इसलिए ध्यान करके देखा तो पता चला कि इसका पुराना सम्बंध था ।
जिस बेटे के लिए शगालचंद सेठ ने इतना कमाया था, वही बेटा मोठ के चार दाने भी नहीं खाने देता और गलती से खा लिये हैं तो मुंडी माँग रहा है बाप की ।
इसलिए कर्म की गति और मनुष्य के मोह पर मुझे हँसी आ रही हैं, कि अपने – अपने कर्मों का फल को प्रत्येक प्राणी को भोगना ही पड़ता है और इस जन्म के रिश्ते – नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता ।
इसलिए जन्म मरण से पीछा छुटाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
देखिए प्रतिदिन सत्संग साधना टीवी पर शाम 07:30 से 08:30 तक ।

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